मंगलवार, 19 अगस्त 2008

बस्ती की महान सेनानी रानी अमोढा

वीरांगना रानी तलाश कुवरि
अरविन्द कुमार सिंह
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में दूरदराज के इलाको में जमीनी स्तर के बहुत से जनसंघर्षो को इतिहासकारो ने नजरंदाज किया गया है । इसी नाते बहुत से क्रांति नायको और नायिकाओं की वीरता की कहानियां अभी भी अपेक्षित महत्व नहीं पा सकी हैं। ऐसी ही एक महान सेनानी बस्ती जिले की अमोढ़ा रियासत की रानी तलाश कुवंरि थीं जिन्होने अंग्रेजों से आखिरी साँस तक लड़ाई लड़ी। उन्होने अपने इलाको में लोगों में अंग्रेजो के खिलाफ ऐसी मुहिम चलायी थी कि रानी की शहादत के बाद कई महीने जंग जारी रही। लेकिन अपना अपना सर्वस्व बलिदान कर देनेवाली रानी का इतिहास लिखे बिना ही रह गया। पर आज भी रानी अमोढ़ा के नाम से वे लोकजीवन में विद्यमान हैं और अंग्रेजों की तोपों से खंडहर में तव्दील उनका महल और किला बरबस ही उनकी याद दिलाता रहता है। रानी का नाम स्थानीय लोग नहीं जानते। वे पड़ोस की रानी तुलसीपुर (गोंडा जिला,उ.प्र।) की तरह ही रानी अमोढ़ा के नाम से ही जानी जाती हैं। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 140 सालों तक गुमनाम रहीं इस महान रानी के बलिदानी भूमिका की कुछ तलाश 1997 में बस्ती मंडल के आयुक्त विनोद शंकर चौबे ने की । उनके प्रयास से वीरांगना रानी की याद में जिले में पहली बार जिला महिला चिकित्सलय बस्ती का नाम रानी के नाम पर कराया । इसी के बाद वीरांगना रानी तलाश कुवंरि जिला महिला चिकित्सालय की पर्चियों ने इलाके को बताना शुरू किया कि रानी अमोढ़ा का असली नाम क्या है। पर अपने वीरता के किस्से -कहानियों के लिए मशहूर रानी क्रांति की किताबो में जगह नहीं पा सकी हैं, न ही उनके बारे में लोग विस्तार से जानते ही हैं।
रानी अमोढ़ा की लोकप्रियता और वीरता का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि उन्होने 10 महीने अंग्रेजों को खुली चुनौती दी। रानी की शहादत के बाद भी स्थानीय ग्रामीणों ने उस समय तक जंग जारी रखी जब सारी जगह शोले बुझ चुके थे। रानी को घाघरा नदी के तटीय या माझा इलाके में इतना बड़ा जनसमर्थन हासिल था कि यहां की बगावत से निपटने के लिए फरवरी 1858 में अंग्रेजों को नौसेना ब्रिगेड की तैनाती भी करनी पड़ी थी। स्थानीय ग्रामीणों ने अंग्रेजी नौसेना तथा गोरखाओं के छक्के काफी दिनो तक छुड़ाए। आसपास के जिलों गोंड़ा और फैजाबाद में भी क्रांति की ज्वाला दहक रही थी और नदी के तटीय इलाको में घाटों की पहरेदारी तथा चौकसी के नाते अंग्रेजों का आना जाना असंभव हो गया था।गोरखपुर-लखनऊ राजमार्ग पर बस्ती-फैजाबाद के मध्य बसे छावनी कसबे से महज एक किलोमीटर दूरी पर स्थित बस्ती जिले की अमोढ़ा रियासत एक जमाने में राजपूतों की काफी संपन्न रियासत हुआ करती थी। अमिताभ बच्चन के पिता जानेमाने लेखक स्व.हरिवंशराय बच्चन का बचपन भी अमोढ़ा राज की छांव में ही बीता। उनके पिता अमोढ़ा राजा के कर्मचारी थे। क्या भूलू क्या याद करू में हरिबंश राय बच्चन ने अपने बचपन के अमोढा को याद भी किया है। लेकिन यह उल्लेखनीय तथ्य है कि १८५७ के महान संग्राम में बस्ती जिले में केवल नगर तथा अमोढ़ा के राजाओं ने ही अंग्रेजों के खिलाफ अपना सर्वस्व बलिदान दिया ,जबकि बाकी रियासतें अंग्रेजों की मदद कर रही थीं। पर जिले के हर हिस्से में किसान तथा आम लोग अपने संगठन के बदौलत अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे। अमोढ़ा तो कालांतर में बागियों का मजबूत केन्द्र ही बन गया था,जहां बड़ी संख्या में तराई के बागी भी पहुंचे थे। अमोढ़ा की रानी ने इसी जनसमर्थन के बूते अंग्रेजो को लोहे के चने चबवा दिए।रानी अमोढा 1853 में राजगद्दी पर बैंठीं और उनका शासन 2 मार्च 1858 तक रहा। रानी अमोढ़ा भी झांसी की रानी की तरह निसंतान थीं। अंग्रेजों ने उनके शासन के दौरान कई तरह की दिक्कतें खड़ी करने की कोशिश की ,पर स्वाभिमानी रानी ने हर मोरचे का मुकाबला किया । रानी ने 1857 की क्रांति की खबर मिलने के बाद अपने भरोसेमंद लोगों के साथ बैठके की और फैसला किया कि अंग्रेजों को भारत से खदेडऩे में स्थानीय किसानो और लोगों की मदद से जी जान से जुट जाना चाहिए। उन्होने बस्ती-फैजाबाद के की सड़क और जल परिवहन ठप करा दिया था। संचार के सारे तार टूट जाने से अंग्रेज बुरी तरह बौखला गए। रानी अंग्रेजों के आंखों की किरकिरी पहले से ही बन गयीं थी। अंग्रेजों के खिलाफ जहर उगलनेवाली रानी को अपने अभियान में व्यापक जनसमर्थन मिला और इलाकाई किसानो ने रानी की शहादत का बदला ही नहीं लिया बल्कि एक -एक इंच जमीन पर अंग्रेजों से बहादुरी से लड़े। रानी की शहादत के बाद भी अंग्रेजों के खिलाफ जोरदार जंग जारी रही। सूर्यवंशी राजपूतों के गांव शाहजहांपुर के क्रांतिकरिओं ने अंग्रेजों की छावनी पर हमला करने तक का दुस्साहस उस समय किया । इस घटना के बाद 1858 में इस गांव का नाम ही गुंडा कर दिया गया। आज भी आजादी के 60 साल के बाद यह गांव गुंडा कुवर के नाम से जाना जाता है । मेरे पिता स्व श्री ठाकुर शरण सिंह ने गांव नाम बदलने के लिए काफ़ी कोशिशे की,लेकिन उनको सफलता नही मिल पाई ।
नेपाली सेना की मदद से 5 जनवरी 1858 को जब गोरखपुर पर अंग्रजो ने अपना कब्जा कर लिया तो उनका ध्यान बस्ती के दो सबसे बागी इलाको की ओर गया । इसमें अमोढ़ा भी एक था। अंग्रेजी सेनाओं ने रोक्राफ्ट के नेतृत्व में अमोढ़ा की ओर कूच किया पर दूसरी तरफ गोरखपुर से पराजय के बाद बागी नेता और सिपाही भी राप्ती पार कर बस्ती जिले की सीमा में पहुंचे और उन्होने उस समय के क्रांति के केन्द्र बने अमोढ़ा के ओर कूच किया । इससे बागियों की संख्या बढ़ गयी। लेकिन अंग्रेजों की लम्बी फिर भी रानी अमोढ़ा के नेतृत्व में अंग्रेजी फौजों को बागियों ने कड़ी चुनौती दी और अंग्रेजी सेना को करारी शिकस्त मिली। पर इस जंग में 500 भारतीय सैनिक मारे गए। इसके बाद हालात की गंभीरता को देखते हुए बड़ी संख्या में अंग्रेजी फौज और तोपें जब अमोढ़ा के लिए रवाना की गयी तो हरकारों के माध्यम से बागियों को यह खबर मिल गयी। बागी सैनिक पड़ोस के बेलवा क्षेत्र की ओर कूच कर गए और रानी अमोढ़ा ने भी अपनी रणनीति बदल कर हालत की समीक्षा की और खुद पखेरवा की ओर चली गयीं ताकि किले का जायजा लेकर बाकी तैयारियां कर ली जायें। लेकिन अंग्रेजों ने भी यहां काफी संख्या में खबरची और भेदिए तैनात कर दिए थे। इस नाते अंग्रेजों को जमीनी हकीकत को देखकर यह आभास हो गया था िक नदी के तटीय इलाको में बाढ़ की तरह फैली जन बगावत को आसानी से नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। ऐसे में कर्नल रोक्राफ्ट ने नौसेना को भी बुला लिया। नौसेना का स्टीमर यमुना घाघरा नदी पर हथियारों के साथ तैनात रहा। सिख और गोरखे भी इन सैनिको की मदद के लिए पर्याप्त संख्या में तैनात थे। सारे तथ्यों का आकलन करके ही एक अन्य सैन्य अधिकारी ले.कर्नल ह्यूज ने गोंडा की ओर से आकर पखेरवा के करीब रानी पर हमला कर दिया।रानी तथा उनके साथी सैनिको ने बहुत ही बहादुरी से मोरचा संभाला और अंग्रेजी सेना को पीछे हटने के लिए विवश कर दिया। लेकिन इसी बीच कर्नल रोक्राफ्ट भी पूर्व नियोजित रणनीति के तहत बड़ी सेना के साथ वहां पहुंच गया। करीब हर तरफ से घेर ली गयीं रानी घबरायीं नहीं और उन्होने इस बड़ी सेना से मोरचा लेना जारी रखा। मर्दाना भेष में शत्रुओं के छक्के छुड़ा रही रानी का घोड़ा पखेरवा के पास ही घायल होकर मर गया। सैन्य व्यूहरचना को करीब से जाननेवाली रानी को जब यह आभास हो गया िक अब पराजय तय है तो वह पखेरवा किले पर पहुंच गयीं। अपने समर्थको और बागी सैनिको को उन्होने संबोधित करते हुए कहा िक -मैं समझ गयी हूं , अब इस राज्य के आखिरी दिन आ गए हैं। अंग्रेज हमें जीवित या मृत पकडऩा चाहते हैं...ऐसी नौबत अगर आ गयी तो मैं स्वयं अपनी कटार से अपनी जीवनलीला समाप्त कर दूंगी,पर आप लोग मेरी लाश को अंग्रेजों के हाथ नहीं पडऩे देना और जंग जारी रखना।यह दिन था 2 मार्च 1858 । रानी ने खुद अपनी कटार से अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी। उनको दिए गए वचन के मुताबिक ग्रामीणों ने उनके शव को अमोढा राज्य की कुलदेवी समय भवानी का चौरा के पास दफना दिया और उसके ऊपर मिट्टी के एक टीला बना दिया। यह टीला 1980 तक रानी चौरा के नाम से ही मशहूर रहा और स्थानीय लोग इसकी देवी की तरह पूजा करते रहे । पर 1980 में एक श्रद्धालु ने समय भवानी का मंदिर बनवाने का बीड़ा उठा लिया और ऐतिहासिक तथ्यों की अज्ञानता के नाते मंदिर विस्तार अभियान में रानी चौरा को भी उसी के साथ विलीन कर दिया। इलाके में ऐतिहासिक स्थलों के संरक्षण में लगे राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित पूर्व शिक्षक तथा समाजसेवी श्री हाकिम सिंह के मुताबिक उन्होने स्वयं दोनो चौरों को कई बार देखा था। दोनो मिट्टी के बने थे और वहां पर हर मंगलवार को मेला लगता है। रानी की शहादत की खबर तो अंग्रेजी खेमे तक पहुंच गयी थी। अंग्रेज अधिकारी बेडफोर्ट ने उनके शव की काफी तलाश की पर वह अंग्रेजों के हाथ नहीं पड़ी। पखेरवा में जहां रानी का घोड़ा मर गया था उसे भी स्थानीय ग्रामीणों ने वहीं दफना दिया। इस जगह पर एक पीपल का पेड़ आज भी मौजूद है। लोगों के लिए ये जगहें किसी बड़े श्रद्दा केन्द्र से कम नहीं हैं।लेकिन यह ऐतिहासिक तथ्य है िक रानी की शहादत के बाद इलाके में और भी अशांति फैल गयी। यहां ग्रामीणों ने खूनी क्रांति का श्रीगणेश किया तथा जगह-जगह अंग्रेजी फौज को चुनौती दी। छावनी के पास रामगढ़ गांव में अंग्रेजों का मुकाबला करने की रणनीति बनाने के लिए 17 अप्रैल 1858 को एक बड़ी बैठक बुलायी गयी थी,जिसमें रामगढ़ के धर्मराज सिंह, बभनगांवा के अवधूत सिंह, गुंडा कुवर के सुग्रीव सिंह, बेलाड़ी के ईश्वरी शुक्ल, घिरौलीबाबू के कुलवंत सिंह, हरिपाल सिंह, बलवीर सिह, रिसाल सिंह, रघुवीर सिंह, सुखवंत सिह,रामदीन सिंह, चनोखा (डुमरियागंज) के जयनारायण सिंह,अटवा के जय सिंह, जौनपुर के सरदार मुहेम सिंह तथा मुशरफ खान, गोंडा के भवन सिंह, करनपुर (पैकोलिया) के रामजियावन सिंह, दौलतपुर के लखपत राय आदि मौजूद थे। बैठक भविष्य में अंग्रेजों के खिलाफ जनक्रांति को कैसे चलाया जाये इसे केन्द्र में रख बुलायी गयी थी।लेकिन इसकी सूचना लेफ्टीनेंट कर्नल हगवेड फोर्ट तक पहुंच गयी और उसने सेना की एक टुकड़ी लेकर यहां धावा बोल दिया । इस हमले में बाकी रणबांकुरे तो बच निकले लेकिन धर्मराज सिंह पकड़ मे आ गए। हगवेड ने उनकी कमर मे कटीला तार बांधकर खुद घोड़े पर बैठ कर उनको घसीटते हुए ले गया। छावनी के उत्तर दिशा की ओर जाते समय उसकी कटार अचानक नीचे गिर गयी । उसने धर्मराज सिंह को ही यह कटार उठाने का हुक्म दिया। लेकिन बागी धर्मराज ने उसी कटार से हगबेड की जीवनलीला समाप्त कर दी। हगवेड की समाधि छावनी में ही बनी हुई है,जिस पर उसकी शहादत का शिलालेख भी अंग्रेजों ने लगाया है। उसी के पास ही धर्मराज सिंह की शहादत का शिलालेख भी शहीद स्मारक समिति बस्ती के संयोजक सत्यदेव ओझा की मदद से लगाया गया है। हगवैड की हत्या के बाद पूरा इलाका अंग्रेजों के आक्रोश की चपेट में आ गया। लेकिन इसी दौरान बेलवा इलाके में कई हिस्सों से बागी पहुंचे और उनके जोरदार मोरचे से कर्नल रोक्राफ्ट इतना भयभीत हो गया िक वह उधर जाने की हिम्मत नहीं कर पाया। अप्रैल 1857 के अंत में वह कप्तानगंज लौट आया,जबकि इस बीच में बागी नाजिम मोहम्मद हसन 4000 सैनिको के साथ अमोढ़ा पहुंचा और वहां पर पहले से ही एकत्र देसी फौजों और स्थानीय बागियों के साथ अपनी ताकत को भी जोड़ दिया। इनके दमन के लिए अब मेजर कोक्स के नेतृत्व में बड़ी सेना वहां भेजी गयी जिसने बागियों को अमोढ़ा छोडऩे को विवश कर दिया। 18 जून 1858 को मोहम्मद हसन पराजित हुआ। पर घाघरा के किनारे आखिरी साँस तक लडऩे के लिए बहुत बड़ी संख्या में बागी डटे हुए थे। उस समय की एक सरकारी रिपोर्ट कहती है-नगर तथा अमोढ़ा को छोड़ कर बाकी शांति है......घाघरा के तटीय इलाके में बड़ी संख्या में बागियों की मौजूदगी है....
रानी अमोढ़ा की अपनी सेना में 800 पठान, एक हजार सूर्यवंशी, 800 विसेन, 300 चौहान तथा क ई अन्य जातियों के लोग थे। इसके अलावा रानी को स्थानीय किसानो और खेतिहर मजदूरों का जोरदार समर्थन भी काफी था क्योंिक अपनी जागीर में वह किसानो का खास ध्यान रखती थीं। रानी अमोढ़ा के सेनापति अवधूत सिंह भी काफी बहादुर थे। उन्होंने रानी की शहादत के बाद हजारों क्रांतिकरिओं को एकत्र कर 6 मार्च 1858 को अमोढ़ा तथा बाद में अन्य स्थानो पर युद्द किया । वह अपने साथियों के साथ बेगम हजरत महल को नेपाल तक सुरक्षित पहुंचाने भी गए थे। पर वापस लौटने पर अंग्रेजों के हाथ पड़ गए और छावनी मे पीपल के पेड़ पर उनको फांसी दे दी गयी। उनके वंशजों में राम सिंह ग्राम बभनगांवा में आज भी रहते हैं।बागियों की रामगढ़ की गुप्त बैठक में शामिल सभी लोग जल्दी ही पकड़े गए और इन सबको बिना मुकदमा चलाए फांसी पर लटका दिया गया। जो भी नौजवान अंग्रेजो की पकड़ में आ जाता उसे छावनी में पीपल के पेड़ पर रस्सी बांध कर लटका दिया जाता था। इसी पीपल के पेड़ के पास एक आम के पेड़ पर भी अंग्रेजों ने जाने कितने लोगों को फांसी दी। इस पेड़ की मौजूदगी 1950 तक थी और इसका नाम ही फंसियहवा आम पड़ गया था। पीपल का पेड़ तो खैर अभी भी है पर आखिरी सांस ले रहा है। इस स्थल पर करीब 500 लोगों को फांसी दी गयी। अंग्रेजों ने प्रतिशोध की भावना से गांव के गांव को आग लगवा दी और इसमें गुंडा कुवर तथा महुआ डाबर सर्वाधिक प्रभावित रहे। इन गांवो से काफी संख्या में लोगों का पलायन भी हुआ। ग्राम रिघौरा के विंध्यवासिनी प्रसाद सिंह, सिकदरपुर के गुरूप्रसाद लाल, भुवनेश्वरी प्रसाद तथा लक्ष्मीशंकर के खानदानकी जायदाद बगावत में जब्त हो गयी थी। पर बलिदानी परिवारों की संख्या हजारों में है।1858 से 1972 तक छावनी शहीद स्थल उपेक्षित पड़ा था। 1972 में शिक्षा विभाग के अधिकारी जंग बहादुर सिह ने अध्यापको के प्रयास से एक शिलालेख लगवाया और कई गांव के लोगों से इतिहास संकलन का प्रयास किया । इसी के बाद कई शहीदों के नाम प्रकाश में आए जिनको शिलालेख पर अंकित किया गया। पर इस स्मारक की दशा बहुत खराब है। बस 30 जनवरी को शहीद दिवस पर यहां एक छोटा मेला लग जाता है,दूसरी ओर अमोढ़ा किला तथा राजमहल भी भारी उपेक्षा का शिकार है। इसके खंडहर पर दो शिलालेख लगे हैं, जिसमें एक में राज्य की बलिदानी भूमिका की जानकारी मिलती है। पर इस स्थल के सुन्दरीकरण के लिए न के बराबर कार्य किया गया है। स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार मजहर आजाद ने यहां की उपेक्षा का मामला कई बार उठाया पर शासन ने ध्यान नहीं दिया। अंग्रेजो ने इलाके में दमन राज कायम करने के साथ रानी की सारी संपत्ति छीन ली और इसे बस्ती के राजा शीतला बख्श सिंह की दादी रानी दिगंबरि को इनाम में दे दी गयी।अमोढ़ा के राजपुरोहित परिवार के वंशज पंडित बंशीधर शास्त्री ने काफी खोजबीन कर अमोढ़ा के सूर्यवंशी राजाओ की 27 पीढ़ी का व्यौरा खोजा है जिसके मुताबिक इसकी 24 वी पीढ़ी में जालिम सिंह सबसे प्रतापी राजा थे। उन्होने 1732 -1786 तक राज किया । इसी वंश की छव्वीसवीं पीढ़ी में राजा जंगबहादुर सिंह ने 1852 तक राज किया । अंग्रेजों से कई बार मोरचा लिया। 71 साल की आयु में वह निसंतान दिवंगत हुए। उनका विवाह अंगोरी राज्य (राजाबाजार, ढ़कवा के करीब जौनपुर) के दुर्गवंशी राजा की कन्या तलाश कुवर के साथ हुआ। वहां राजकुमाँरियों को भी राजकुमारों की तरह शस्त्र शिक्षा दी जाती थी। इसी नाते रानी बचपन से ही युद्द क ला में प्रवीण थीं।अमोढ़ा राज के खंडहर आज भी अपनी जगह खड़े हैं और रानी अमोढ़ा की बलिदानी गाथा का बयान करते हैं। वर्ष 915 ई के पहले अमोढ़ा में भरों का राज था, जिसे पराजित कर सूर्यवंशी राजा कंसनारायण सिंह ने शासन किया । उनके पांच पुत्र थे जिसमें सबसे बड़े कुवर सिंह ने अपना किला पखेरवा में स्थापित किया । आज भी यह उनके किले के नाम से ही मशहूर है। अमोढ़ा के किले और राजमहल के नीचे से पखेरवा तक चार किलोमीटर सुरंग होने की बात भी कही जाती है। उनके कु वर कहे जाते हैं तथा अमोढ़ा के इर्द गिर्द के 42 गांव अपने आगे कुवर लगाते है । ये सभी काफी बागी गांव माने जाते रहे हैं। 1858 के बाद इन गांवों पर अंग्रेजों ने भीषण अत्याचार किया गया । विकास की मुख्यधारा से ये गांव आज भी सदियों पीछे हैं।

11 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

नमस्कार !!
१८५७ च्या स्वातंत्र्यसमराला उजाळा "स्वातंत्र्यसमर १८५७ चा" http://swatantrasamar1857cha.blogspot.com/, त्यात तुम्हाला बघायला मिळेल दुर्मिळ चित्र आणि त्यांची संक्षिप्त माहीती तर मग तुम्ही जरुर भेट द्या, आणि तुमचा अभिप्राय ब्लॉग वर द्या !!
प्रशांत - नाशिक

आवारापन.. ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
आवारापन.. ने कहा…

सादर प्रणाम ..
आज यूं ही मैं इंटरनेट पर आपके रचना संसार को तलाश रहा था कि अचानक इस पेज पर पहुंच गया ... यह लेख पढ़ कर मेरी भी कुछ यादें ताजा हो गईं। 8वीं तक मेरी शिक्षा छावनी बाजार में ही हुई है .. मैं अक्सर चोरी छिपे अपनी साइकिल से दो- तीन दोस्तों के साथ माझा के गांवो में होते हुये सरयू बांध, अमोढ़ा बाजार और चतुर्भुजी बाबा के मंदिर घूमने जाया करता था ।
कई बार कौतूहल वस अमोढ़ा के रास्ते में पड़ने वाले विशाल खंडहर के भी चक्कर लगा लिया करते थे । हालांकि वहां के लोग हमें डराते थे कि वहां मत जाया करो । कुछ लोग कहते कि इस खंडहर के नीचे खजाना है लेकिन किसी की हिम्मत नहीं कि उसे पा सके । कुछ वहां भूत प्रेत का भी डर दिखाते थे । इन सब बातों से हमारे चंचल मन में और भी कौतूहल भर जाता , हम कई बार वहां गये, वहां के टूटी फूटी दीवारों पर कूद फांद की, लेकिन कोई टोकने वाला न होता था । हम शाम होने से पहले ही वहां से निकल लिया करते थे ... ..

कुछ इसी तरह का कौतूहल हमें छावनी के शहीद स्मारक को देख कर भी होता था .. उस लाल खंभे का मतलब हमें कभी समझ नहीं आया .. वहां खड़ा पीपल का पेड़ और उसके नीचे लिखे शहीदों के नाम वाला शिलापट में शायद ही किसी की दिलचस्पी होगी लेकिन हमारा बाल मन कई तरह की कल्पनायें करता था .. उस पेड़ के ठीक नीचे बनी पुलिस की कालोनी को देख मुझे लगता था कि पुलिस वाले ही इस पीपल के पेड़ के नीचे रहने की हिम्मत कर सकते हैं वो भी ऐसा पेड़ जिसपर हजारों आत्माओं का निवास है ...

एक दिन सूचना मिली की इस बार से वहां शहीद दिवस मनाया जायेगा ... इसके उपलक्ष में वहां सांस्क़तिक कार्यक्रम और मेला भी लगेगा .. हम पूरे जोश के साथ कार्यक्रम की तैयारी में जुट गये ..
शहीद दिवस का दिन भी आ गया । पीपल के पेड़ के नीचे ही कार्यक्रम आयोजित किया गया , हर तरफ देश भक्ति के गीत बज रहे थे , छावनी में शायद पहली बार कोई मेला लग रहा था जिसमें इतने लोग इकट्ठा हुय़े थे.. पूरे इलाके के उन परिवारों को आमंत्रित किया गया था जिनके पूर्वज आजादी की लड़ाई में शहीद हुये थे। कइयों ने भाषण तो कई ने पुराने किस्से सुनाये, हमने भी कई देश भक्ति वाले गीत शहीदों की याद में गाये.. अंत में एक लड़का जो शायद गुंडा कुंवर या माझा के किसी गांव का था .. उसने एक स्वरचित कविता सुनाई ... उसकी कविता इतनी प्रभावशाली थी कि सब ने खड़े होकर उसका अभिवादन किया । उसकी कविता अपने बहादुर पूर्वजों के ऊपर आधारित थी उसने कविता से उन सभी महत्वपूर्ण लोगों को याद किया जिनका स्वतंत्रता संघर्ष में अहम योगदान था, या फिर जिन्होने निःस्वार्थ बलिदान किया था ........

उसके बाद तो जब भी मैं उस स्मारक के पास से गुजरता था मेरा मस्तिष्क श्रद्धा से झुक जाता । मुझे गर्व होने लगा कि मेरे क्षेत्र में ऐसे महान क्रांतिकारी और शूरवीर पैदा हुये । ..
शायद पहली बार मुझे छावनी बाजार नाम के पीछे का मतलब समझ आया था ।..... अब छावनी मुझे बाजार से बढ़ कर गौरवशाली इतिहास वाला एक गुमनाम शहर नज़र आता है ...
छावनी की इस महान धरा को शत शत नमन।



आपके इस शोधपूर्ण लेख ने छावनी औऱ अमोढ़ा के प्रति मेरी आस्था को और भी मजबूत बनाया है ।

धन्यवाद

आशीष मिश्र
dholkipole.blogspot.com

स्वप्निल ने कहा…

आपके आलेख पढ़ कर दिल खुश हुआ अरविंद जी।
क्या ये आलेख आपके ब्लॉग से में एक स्वराज फीचर एजेंसी के लिए ले सकता हूं।
यह फीचर एजेंसी 500 रुपए का आलेख पर मानदेय देती है।
आप अपना पता और फोन नंबर मुझे जल्दी ही मेल कर दें।
मेरा नंबर है
9826782660
swapnil.ravi@gmail.com

Unknown ने कहा…

Mujhe apka lekh bahut pasand aaya isase pahle mujhe bahut Kam pata tha amoda k bare me thank you sir ARADHANA MISHRA JIJIRAM PUR BASTI

Unknown ने कहा…

Mujhe apka lekh bahut pasand aaya isase pahle mujhe bahut Kam pata tha amoda k bare me thank you sir ARADHANA MISHRA JIJIRAM PUR BASTI

Unknown ने कहा…

आपके इस शोधपूर्ण लेख ने छावनी औऱ अमोढ़ा के प्रति मेरी आस्था को और भी मजबूत बनाया है ।

धन्यवाद
HP Singh
Gorakhpur
Mob. 8877193708

Unknown ने कहा…

आपके इस शोधपूर्ण लेख ने छावनी औऱ अमोढ़ा के प्रति मेरी आस्था को और भी मजबूत बनाया है ।

धन्यवाद
HP Singh
Gorakhpur
Mob. 8877193708

mahesh pratap srivastav ने कहा…

Atyant aabhar aapka ....

mahesh pratap srivastav ने कहा…

Atyant aabhar aapka ....

Unknown ने कहा…

Millions of thanks from the core of my heart. My native village is just 6 kms away from Amorah but I never knew its detailed history.. I had heard a lot about the dynasty of Raja Jalim Singh but not much about other things.. Your research is an eye opener. I shall disseminate this information to my friends and family members... Thank you once again Mr Singh