बुधवार, 3 सितंबर 2008

साझी शहादत क्यों भूली सरकार ?

अरविन्द कुमार सिंह
भारत सरकार ने 1857 की याद में प्रतीक स्वरूप साझी-शहादत-साझी विरासत को अपना ध्येय वाक्य माना। यह तो निश्चय ही अच्छी बात थी लेकिन यह बहुत तकलीफ की बात है िक सारे आयोजन को इतने हलके रूप में लिया गया िक कोई भी ठोस रचना सामने नहीं आ सकी । 1957 में 1857 के 100 साल के मौके पर काफी महत्वपूर्ण दस्तावेज सामने आए थे और काफी काम किया गया था । इस बार नेशनल बुक ट्स्ट तथा प्रकाशन विभाग ने अपनी पहल पर कुछ महत्वपूर्ण रचनाओं का प्रकाशन किया है पर सरकारी स्तर के समारोहों की हालत बहुत दुखद रही है। और तो और प्रधानमंत्री डा। मनमोहन सिंह के पास 1857 के शहीदों की याद में जारी स्मारक डाक टिकट के लिए भी समय नहीं निकला।सबसे दुखद बात तो यह है िक आपसी कलह तथा संघर्ष में उलझी डा.मनमोहन सिंह सरकार 1857 के 150 साल के मौके पर आयोजित समारोहों में पाकिस्तान व् बंगलादेश को शामिल नहीं कर पायी। उनकी ओर से इस बाबत कोई पहल भी की गयी इसमें संदेह है। क्या जानबूझ कर डा. मनमोहन सिंह १८५७ के तमाम कार्यक्रमों कतराते रहे ? क्या बिना सरकार की जानकारी के ही अंग्रेज देश के कई हिस्सों में विजय दिवस मनाते रहें? सबसे गंभीर बात है 1857 के कार्यक्रमों पड़ोसी दशों को शामिल नहीं किया जाना। यहां उल्लेखनीय बात है िक 12वें दक्षेस शिखर सम्मेलन में इस्लामाबाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 4 जनवरी 2004 को साझा तौर पर 1857 को मनाने की पहल की थी। उन्होने इस मौके पर कहा था िक इस उपमहाद्वीप में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ 1857 की बगावत की 150वीं वर्षगांठ भारत पाकिस्तान तथा बंगलादेश संयुक्त रूप से मनाएं।दक्षेस शिखर सम्मेलन को कवर करने इस मौके पर मै भी इस्लामाबाद में था और जब अटल बिहारी वाजपेयी ने ये बातें कहीं तो दक्षिण एशियाई देशों के पत्रकारों ने ही नहीं राजनेताओं ने भी उनकी भावनाओं से सुर मिलाते हुए व्यापक सराहना की थी। श्री वाजपेयी का कहना था िक मैने सेल्युलर जेल अंडमान की दीवारों पर कई बहादुर शहीदों और सेनानियों के नाम देखे जिनका संबंध एशिया के तीनो देशों से है। हमारे पूर्वजों ने समान औपनिवेशिक दमनकर्ता के खिलाफ धार्मिक , क्षेत्रीय तथा भाषाई भिन्नता की सीमाओं को लांघते हुए एकजुट होकर 1857 में लडाई लड़ी थी। यह हममे से कइयों को साझा इतिहास की याद दिलाता है जो हाल के विभाजन के पहले की बातें है। उनकी पेशकश थी िक दो साल बाद भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 150वी वर्षगांठ के मौके पर समान शत्रु के खिलाफ साझा संघर्ष की यादगार के रूप में भारत पाकिस्तान और बंगलादेश मिल कर मनाएं।भारत की ओर से उठने वाले सभी सार्थक सवालों की आलोचना करनेवाले पाकिस्तानी प्रेस ने तो इस भाव की जमकर तारीफ की थी। पर 1857 के 150वें साल की तैयारियों में भारत सरकार अपने ही प्रधानमंत्री की ओर से की गयी पेशकश को भूल गयी। जो काम भी हुआ वह केवल कागजों से आगे नहीं बढ़ सका । अगर तीनो देश मिल कर कार्यक्रम मनाते तो एक अलग ही नजारा होता। 1857 की लड़ाई हिंदुओं- मुसलमानों ने मिल कर लड़ीं थी और दुनिया में एक नया संदेश भी इससे जाता। सरकारी स्तर पर 68 सदस्यीय समिति के गठन के बाद इसकी बात भी हुई थी। लेकिन सब कुछ लालफीते में ही कैद रहा।उल्लेखनीय है िक प्रथम स्वाधीनता संग्राम की याद में भारतीय डाक विभाग की ओर से 9 अगस्त 2007 को 16 लाख डाक टिकट भी छापे गए थे जिनका लोकार्पण प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को करना था। पर ऐन मौके पर उन्होने अपना कार्यक्रम बदल दिया। आखिर इससे बड़ा और कौन काम हो सकता था? डाक विभाग सूत्रों का कहना है,इसकी तैयारियों में पूरा विभाग मुंबई में जुटा था और 1857 से संबंधित मध्यप्रदेश के जनजातीय चित्रों का भी कार्र्ड प्रका शित किया गया।यूपीए सरकार ने 11 मई २००७ को दिल्ली में एक बड़ा कार्यक्रम किया पर उसका सारा दारोमदार नेहरू युवा केन्द्र पर छोड़ दिया गया। मेरठ-दिल्ली के में ८० किमी की यात्रा में छायी रही अव्यवस्था ही सुर्खियों में रही। सवाल यह है ,जब 2005 में ही अर्जुन सिंह की अध्यक्षता में मंत्रियों का एक समूह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 150 साल को मनाने के लिए गठित किया गया और उसमें शिवराज पाटिल,एस.जयपाल रेड्डी तथा मणिशंकर अइयर आदि को शामिल किया गया तो ठोस कार्यक्रम बनाने में दिक्कत कहाँ थी। 24 जून को फैसला किया किया िक इस पर 100 करोड़ की राशि खर्च होगी और और धूमधाम से मनाया जाएगा। लेकिन बाद में राशि बढ़ा कर १५० करोड़ कर दी गयी। इसके बाद भारत सरकार ने 2 मई 2006 को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की १५० वर्षगांठ ,आजादी की 60वीं वर्षगांठ, वंदेमातरम को राष्ट्रीय गीत के रूप में अंगीकार करने की शताब्दी ,शहीद भगत सिंह की शहादत की 75वीं वर्षगांठ तथा शहीद भगत सिंह जन्मशताब्दी मनाने के लिए डा.मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में समिति बनायी। समिति में देश के तमाम दिग्गज शामिल हैं। इसकी पहली बैठक 13 जुलाई 2006 को हुई थी ,जिसमें तय किया गया िक ऐतिहासिक व यादगार इमारतों या स्मारको की पहचान कर उसके संरक्षण तथा जीर्णोद्दार की योजना बनायी जाये। सेमिनार तथा अन्य कार्यक्रम तो किए गए पर वास्तविक मुद्दों से सरकार का ध्यान हटा रहा।सरकार ने संयुक्त सचिव स्तर के एक अधिकारी की नियुक्ति कर विशेष सेल बना दिया है और मई 2008 तक कार्यक्रम चला। अभी काफी पैसा बाकी पड़ा है और सरकारी उदासीनता से बहुत सी योजनाएं धरातल पर ही नहीं उतर सकी हैं। यह तो गनीमत है िक समाज के विभिन्न वर्र्गो की ओर से इस बीच में प्रभावशाली कार्यक्रम हुए हैं और हो रहे हैं। अन्यथा इस बार 1857 की याद का भी सरकारीक रण कर दिया गया।यह भी काफी कचोटनेवाली बात रही िक भारत सरकार सोती रही और अंग्रेजों का शिष्टमंडल देश की राजधानी दिल्ली और 1857 की महान क्रांति के उदगम स्थल मेरठ में विजय दिवस मना कर चला गया। 20 सितंबर की १८५७ को दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले पर अंग्रेजों ने कब्जा किया था। और वह हर भारतीय के लिए किसी शोक दिवस से कम नहीं था। लेकिन बलिहारी है इस सरकार का जिसकी लापरवाही के चलते अंग्रेज भारत में आकर हमारे शहीदों को अपमानित कर गए।दिल्ली और मेरठ में अगर अंग्रेज विजय दिवस मनाने पहुंचे तो निश्चय ही उनकी अपनी पहले की तैयारियां रही होगीं। तारीखें भी उन्होने वही चुनीं जिनमे वे विजयी हुए थे। लेकिन यह विजय दिवस वे आजाद भारत की उस धरती पर मनाने कैसे आ गए जिसने अंग्रेजों से दो सदी तक संघर्ष करने के बाद आजादी हासिल की है। सरकार का यह कहना िक इसकी जांच होगी, यह बात किसी के गले नहीं उतरी थी। अब तक कोई जांच हुई ऐसा किसी को लगा नहीं। आखिर वीजा और विदेशियों के लिए और सारी व्यवस्थाएं तथा हमारा निगरानी तंत्र क्या इतना कमजोर है िक कोई भी यहां आकर कुल कुछ करके चला जाये।भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में मेरठ तथा दिल्ली दोनो का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। सितंबर के आखिर में ही दिल्ली में सारी प्रमुख घटनाएं घटीं थीं। यह विजय भी अंग्रेजों के खाते मेंं छल और प्रपंच से आयी थी। अंग्रेजों का जासूस लाही बख्श दिल्ली की स्वतंत्रता का सबसे बड़ा भेदिया रहा है। उसी के चलते सेनाध्यक्ष जनरल बख्त खां अपनी सेना के साथ दिल्ली से वापस चला गया। इसी इलाही बख्श की सूचना पर मेजर हडसन ने बहादुर शाह जफर,बेगम जीनत महल तथा शहजादे जवा बख्त को गिरफ्तार करके लाल किले में डाल दिया। सम्राट को इलाही के विश्वासघात का पता तब चला जब वह कैद में आ गए थे। बहादुरशाह जफर की गिररफ्तारी के पहले 134 दिनो तक दिल्ली में रोज जंग जारी रही और इसके बाद ही हजारों सैनिको की शहादत के बाद ही पूरी तरह अंग्रेजों का कब्जा हो सका । उस समय अगर दिल्ली के आसपास के गांवों में क्रांति की आग न सुलग रही होती तो अंग्रेज राजा नाहर सिंह से लेकर तमाम महान बलिदानियों की तरह बहादुर शाह जफर की हत्या कर देते या फांसी लगवा देते।हुमायूं के मकबरे से मेजर हडसन ने बहादुर शाह जफर के बेटे मिरजा मुगल तथा मिरजा अख्तर सुल्तान और पोते मिरजा अकबर को गिरफ्तार कर लिया और उनको गोली मार कर उनके सिरो को काट कर हडसन ने बहादुर शाह को पेश किया । बहादुर शाह जफर से कहा गया था ,-इस्ट इंडिया कम्पनी की ओर से आपको यह नजर है, जो बरसों से बंद थी। १८५७ के का सितंबर महीना दिल्ली के लिए तबाही का पैगाम लाया था। हरियाणा तथा पश्चिमी उ.प्र. तमाम बागी नेताओं को फांसी दी गयी। बहादुर शाह जफर के परिवार के लोग कैद में लालकिले में डाल दिए गए थे। कितनो को फांसी दी गयी,इसका कुछ हिसाब किताब ही नहीं है। कुछ शहजादों से तो जेल मे चक्कियां पिसवायीं गयी,उनको कोड़ो से पीटा गया। शहजादे और शहजादियों को दिल्ली से भाग कर देश के तमाम हिस्सों में भटकना पड़ा। आज भी इस परिवार के लोग सड़क छाप ही बने हुए हैं। सरकार ने उन पर ध्यान नहीं दिया। १८५७ में दिल्ली के नागरिको पर जो अत्याचार किया गए उससे खुद अग्रेज शर्मा गए थे। कम्पनी की सेना जब किले में घुसी तो जो भी नागरिक मिला उनको मारा गया और किले के अस्पताल में घायल और रोगियों को भी मार डाला गया था। लाहौरी गेट से चांदनी चौक तक जाने कितनी लाशें बिछा दी गयी थीं। पर इन बातों की याद भला सरकार क्यों करेगी ?