बुधवार, 3 सितंबर 2008

साझी शहादत क्यों भूली सरकार ?

अरविन्द कुमार सिंह
भारत सरकार ने 1857 की याद में प्रतीक स्वरूप साझी-शहादत-साझी विरासत को अपना ध्येय वाक्य माना। यह तो निश्चय ही अच्छी बात थी लेकिन यह बहुत तकलीफ की बात है िक सारे आयोजन को इतने हलके रूप में लिया गया िक कोई भी ठोस रचना सामने नहीं आ सकी । 1957 में 1857 के 100 साल के मौके पर काफी महत्वपूर्ण दस्तावेज सामने आए थे और काफी काम किया गया था । इस बार नेशनल बुक ट्स्ट तथा प्रकाशन विभाग ने अपनी पहल पर कुछ महत्वपूर्ण रचनाओं का प्रकाशन किया है पर सरकारी स्तर के समारोहों की हालत बहुत दुखद रही है। और तो और प्रधानमंत्री डा। मनमोहन सिंह के पास 1857 के शहीदों की याद में जारी स्मारक डाक टिकट के लिए भी समय नहीं निकला।सबसे दुखद बात तो यह है िक आपसी कलह तथा संघर्ष में उलझी डा.मनमोहन सिंह सरकार 1857 के 150 साल के मौके पर आयोजित समारोहों में पाकिस्तान व् बंगलादेश को शामिल नहीं कर पायी। उनकी ओर से इस बाबत कोई पहल भी की गयी इसमें संदेह है। क्या जानबूझ कर डा. मनमोहन सिंह १८५७ के तमाम कार्यक्रमों कतराते रहे ? क्या बिना सरकार की जानकारी के ही अंग्रेज देश के कई हिस्सों में विजय दिवस मनाते रहें? सबसे गंभीर बात है 1857 के कार्यक्रमों पड़ोसी दशों को शामिल नहीं किया जाना। यहां उल्लेखनीय बात है िक 12वें दक्षेस शिखर सम्मेलन में इस्लामाबाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 4 जनवरी 2004 को साझा तौर पर 1857 को मनाने की पहल की थी। उन्होने इस मौके पर कहा था िक इस उपमहाद्वीप में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ 1857 की बगावत की 150वीं वर्षगांठ भारत पाकिस्तान तथा बंगलादेश संयुक्त रूप से मनाएं।दक्षेस शिखर सम्मेलन को कवर करने इस मौके पर मै भी इस्लामाबाद में था और जब अटल बिहारी वाजपेयी ने ये बातें कहीं तो दक्षिण एशियाई देशों के पत्रकारों ने ही नहीं राजनेताओं ने भी उनकी भावनाओं से सुर मिलाते हुए व्यापक सराहना की थी। श्री वाजपेयी का कहना था िक मैने सेल्युलर जेल अंडमान की दीवारों पर कई बहादुर शहीदों और सेनानियों के नाम देखे जिनका संबंध एशिया के तीनो देशों से है। हमारे पूर्वजों ने समान औपनिवेशिक दमनकर्ता के खिलाफ धार्मिक , क्षेत्रीय तथा भाषाई भिन्नता की सीमाओं को लांघते हुए एकजुट होकर 1857 में लडाई लड़ी थी। यह हममे से कइयों को साझा इतिहास की याद दिलाता है जो हाल के विभाजन के पहले की बातें है। उनकी पेशकश थी िक दो साल बाद भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 150वी वर्षगांठ के मौके पर समान शत्रु के खिलाफ साझा संघर्ष की यादगार के रूप में भारत पाकिस्तान और बंगलादेश मिल कर मनाएं।भारत की ओर से उठने वाले सभी सार्थक सवालों की आलोचना करनेवाले पाकिस्तानी प्रेस ने तो इस भाव की जमकर तारीफ की थी। पर 1857 के 150वें साल की तैयारियों में भारत सरकार अपने ही प्रधानमंत्री की ओर से की गयी पेशकश को भूल गयी। जो काम भी हुआ वह केवल कागजों से आगे नहीं बढ़ सका । अगर तीनो देश मिल कर कार्यक्रम मनाते तो एक अलग ही नजारा होता। 1857 की लड़ाई हिंदुओं- मुसलमानों ने मिल कर लड़ीं थी और दुनिया में एक नया संदेश भी इससे जाता। सरकारी स्तर पर 68 सदस्यीय समिति के गठन के बाद इसकी बात भी हुई थी। लेकिन सब कुछ लालफीते में ही कैद रहा।उल्लेखनीय है िक प्रथम स्वाधीनता संग्राम की याद में भारतीय डाक विभाग की ओर से 9 अगस्त 2007 को 16 लाख डाक टिकट भी छापे गए थे जिनका लोकार्पण प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को करना था। पर ऐन मौके पर उन्होने अपना कार्यक्रम बदल दिया। आखिर इससे बड़ा और कौन काम हो सकता था? डाक विभाग सूत्रों का कहना है,इसकी तैयारियों में पूरा विभाग मुंबई में जुटा था और 1857 से संबंधित मध्यप्रदेश के जनजातीय चित्रों का भी कार्र्ड प्रका शित किया गया।यूपीए सरकार ने 11 मई २००७ को दिल्ली में एक बड़ा कार्यक्रम किया पर उसका सारा दारोमदार नेहरू युवा केन्द्र पर छोड़ दिया गया। मेरठ-दिल्ली के में ८० किमी की यात्रा में छायी रही अव्यवस्था ही सुर्खियों में रही। सवाल यह है ,जब 2005 में ही अर्जुन सिंह की अध्यक्षता में मंत्रियों का एक समूह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 150 साल को मनाने के लिए गठित किया गया और उसमें शिवराज पाटिल,एस.जयपाल रेड्डी तथा मणिशंकर अइयर आदि को शामिल किया गया तो ठोस कार्यक्रम बनाने में दिक्कत कहाँ थी। 24 जून को फैसला किया किया िक इस पर 100 करोड़ की राशि खर्च होगी और और धूमधाम से मनाया जाएगा। लेकिन बाद में राशि बढ़ा कर १५० करोड़ कर दी गयी। इसके बाद भारत सरकार ने 2 मई 2006 को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की १५० वर्षगांठ ,आजादी की 60वीं वर्षगांठ, वंदेमातरम को राष्ट्रीय गीत के रूप में अंगीकार करने की शताब्दी ,शहीद भगत सिंह की शहादत की 75वीं वर्षगांठ तथा शहीद भगत सिंह जन्मशताब्दी मनाने के लिए डा.मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में समिति बनायी। समिति में देश के तमाम दिग्गज शामिल हैं। इसकी पहली बैठक 13 जुलाई 2006 को हुई थी ,जिसमें तय किया गया िक ऐतिहासिक व यादगार इमारतों या स्मारको की पहचान कर उसके संरक्षण तथा जीर्णोद्दार की योजना बनायी जाये। सेमिनार तथा अन्य कार्यक्रम तो किए गए पर वास्तविक मुद्दों से सरकार का ध्यान हटा रहा।सरकार ने संयुक्त सचिव स्तर के एक अधिकारी की नियुक्ति कर विशेष सेल बना दिया है और मई 2008 तक कार्यक्रम चला। अभी काफी पैसा बाकी पड़ा है और सरकारी उदासीनता से बहुत सी योजनाएं धरातल पर ही नहीं उतर सकी हैं। यह तो गनीमत है िक समाज के विभिन्न वर्र्गो की ओर से इस बीच में प्रभावशाली कार्यक्रम हुए हैं और हो रहे हैं। अन्यथा इस बार 1857 की याद का भी सरकारीक रण कर दिया गया।यह भी काफी कचोटनेवाली बात रही िक भारत सरकार सोती रही और अंग्रेजों का शिष्टमंडल देश की राजधानी दिल्ली और 1857 की महान क्रांति के उदगम स्थल मेरठ में विजय दिवस मना कर चला गया। 20 सितंबर की १८५७ को दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले पर अंग्रेजों ने कब्जा किया था। और वह हर भारतीय के लिए किसी शोक दिवस से कम नहीं था। लेकिन बलिहारी है इस सरकार का जिसकी लापरवाही के चलते अंग्रेज भारत में आकर हमारे शहीदों को अपमानित कर गए।दिल्ली और मेरठ में अगर अंग्रेज विजय दिवस मनाने पहुंचे तो निश्चय ही उनकी अपनी पहले की तैयारियां रही होगीं। तारीखें भी उन्होने वही चुनीं जिनमे वे विजयी हुए थे। लेकिन यह विजय दिवस वे आजाद भारत की उस धरती पर मनाने कैसे आ गए जिसने अंग्रेजों से दो सदी तक संघर्ष करने के बाद आजादी हासिल की है। सरकार का यह कहना िक इसकी जांच होगी, यह बात किसी के गले नहीं उतरी थी। अब तक कोई जांच हुई ऐसा किसी को लगा नहीं। आखिर वीजा और विदेशियों के लिए और सारी व्यवस्थाएं तथा हमारा निगरानी तंत्र क्या इतना कमजोर है िक कोई भी यहां आकर कुल कुछ करके चला जाये।भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में मेरठ तथा दिल्ली दोनो का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। सितंबर के आखिर में ही दिल्ली में सारी प्रमुख घटनाएं घटीं थीं। यह विजय भी अंग्रेजों के खाते मेंं छल और प्रपंच से आयी थी। अंग्रेजों का जासूस लाही बख्श दिल्ली की स्वतंत्रता का सबसे बड़ा भेदिया रहा है। उसी के चलते सेनाध्यक्ष जनरल बख्त खां अपनी सेना के साथ दिल्ली से वापस चला गया। इसी इलाही बख्श की सूचना पर मेजर हडसन ने बहादुर शाह जफर,बेगम जीनत महल तथा शहजादे जवा बख्त को गिरफ्तार करके लाल किले में डाल दिया। सम्राट को इलाही के विश्वासघात का पता तब चला जब वह कैद में आ गए थे। बहादुरशाह जफर की गिररफ्तारी के पहले 134 दिनो तक दिल्ली में रोज जंग जारी रही और इसके बाद ही हजारों सैनिको की शहादत के बाद ही पूरी तरह अंग्रेजों का कब्जा हो सका । उस समय अगर दिल्ली के आसपास के गांवों में क्रांति की आग न सुलग रही होती तो अंग्रेज राजा नाहर सिंह से लेकर तमाम महान बलिदानियों की तरह बहादुर शाह जफर की हत्या कर देते या फांसी लगवा देते।हुमायूं के मकबरे से मेजर हडसन ने बहादुर शाह जफर के बेटे मिरजा मुगल तथा मिरजा अख्तर सुल्तान और पोते मिरजा अकबर को गिरफ्तार कर लिया और उनको गोली मार कर उनके सिरो को काट कर हडसन ने बहादुर शाह को पेश किया । बहादुर शाह जफर से कहा गया था ,-इस्ट इंडिया कम्पनी की ओर से आपको यह नजर है, जो बरसों से बंद थी। १८५७ के का सितंबर महीना दिल्ली के लिए तबाही का पैगाम लाया था। हरियाणा तथा पश्चिमी उ.प्र. तमाम बागी नेताओं को फांसी दी गयी। बहादुर शाह जफर के परिवार के लोग कैद में लालकिले में डाल दिए गए थे। कितनो को फांसी दी गयी,इसका कुछ हिसाब किताब ही नहीं है। कुछ शहजादों से तो जेल मे चक्कियां पिसवायीं गयी,उनको कोड़ो से पीटा गया। शहजादे और शहजादियों को दिल्ली से भाग कर देश के तमाम हिस्सों में भटकना पड़ा। आज भी इस परिवार के लोग सड़क छाप ही बने हुए हैं। सरकार ने उन पर ध्यान नहीं दिया। १८५७ में दिल्ली के नागरिको पर जो अत्याचार किया गए उससे खुद अग्रेज शर्मा गए थे। कम्पनी की सेना जब किले में घुसी तो जो भी नागरिक मिला उनको मारा गया और किले के अस्पताल में घायल और रोगियों को भी मार डाला गया था। लाहौरी गेट से चांदनी चौक तक जाने कितनी लाशें बिछा दी गयी थीं। पर इन बातों की याद भला सरकार क्यों करेगी ?

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

भारत का पहला शहीद पत्रकार

मौलवी मोहम्मद बाकर
अरविंद कुमार सिंह

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में तमाम राजाओं के नाम प्रमुखता से आते हैं, पर पत्रकारों की बलिदानी भूमिका पर खास रोशनी नहीं पड़ती है। पर जब सभी आहुति दे रहे थे तो भला उस समय के पत्रकार पीछे कैसे रहते? यह सही है कि1857 की बुनियाद सिपाहियों ने डाली थी शुरू से अंत तक वही इसकी रीढ़ बने रहे, लेकिन इसमें भाग लेनेवालों में मजदूर किसान, जागीरदार, पुलिस ,सरकारी मुलाजिम, पेंशनर, पूर्व सैनिक तथा लेखक और पत्रकार भी थे। इस क्रांति में पत्रकारिता क्षेत्र के नायक बने थे मौलवी मोहम्मद बाकर ,जिनके नेतृत्व में प्रकाशित होनेवाले देहली उर्दू अखबार ने 1857 में सैकड़ों तोपों जितनी मार की । उनकी आग उगलती लेखनी से अंग्रेज बहुत कुपित थे। पर वह किसी दबाव में नहीं आए और लगातार लेखनी से जंग जारी रखी। दिल्ली पर कब्जा कर लेने के बाद अंग्रेजों ने मौलवी बाकर पर कई तरह के झूठे आरोप लगाए और उनको फांसी पर लटका दिया गया। देहली उर्दू अखबार के लेखों ,रिपोर्टों, अपीलों, काव्य रचनाओं तथा फतवों से अंग्रेज अधिकारी खासे नाराज थे। इसी नाते अखबार और उसके संपादक पर बगावत को भड़काने का आरोप लगाया गया। महान सेनानी मौलवी बाकर को दिल्ली में 14 सितंबर 1857 को गिरफ्तार किया गया और मुकदमे का नाटक किए बिना ही 16 सितंबर 1857 को कुख्यात अधिकारी मेजर हडसन ने फांसी पर लटका दिया। लेकिन यह दुख: कि बात है कि पत्रकारिता क्षेत्र के इस पहले और महान बलिदानी की भूमिका से खुद मीडिया जगत के ही अधिकतर लोग अपरिचित हैं। १६ सितंबर २००७ को पहली बार इस आलेख के लेखक के संयोजन में प्रेस क्लब आफ इंडिया ने शहीद पत्रकार की याद में एक समारोह किया था। इसके बाद जानेमाने उर्दू पत्रकार और उर्दू संपादक सम्मेलन के महासचिव मासूम मुरादाबादी ने एक पुस्तक भी लिखी, जिसका हाल में उपराष्ट्रपति ने लोकार्पण किया । इस पुस्तक में विलियम डेंपरिल के तमाम दावों की धज्जी उड़ाई गयी है। उन्होने तमाम प्रमाणों से यह भी स्थापित किया है कि मौलवी बाकर की फांसी देने की तिथि १६ सितंबर 1857 थी,जबकि कई दस्तावेजों में यह 17 सितंबर भी अंकित है।
देहली उर्दू अखबार जैसी बागी पत्रकारिता को ही नियंत्रित करने के लिए 13 जून 1857 को लार्ड केनिंग एक गलाघोंटू कानून लेकर आए। राजद्रोह पर बहुत कड़ी सजा के साथ पूर्व अनुमति के बिना प्रेस खोलना व उसे चलाना गैरकानूनी बना दिया गया। पर उस समय पयामे आजादी , देहली उर्दू अखबार ,समाचार सुधावर्षण और हिंदू पैट्रियाट समेत दर्जनो अखबारों ने सच लिखना जारी रखा था। उस समय एक से दूसरे जगहों पर आवाजाही या संदेश भेजना बहुत कठिन था। ऐसे माहौल में भी महान क्रांति का दायरा बहुत लंबे चौड़े इलाके तक रहा। इससे यह समझा जा सकता है कि चिंगारी को फैलाने में कितने लोगों का श्रम और बलिदान निहित रहा होगा। जाहिर है कि उस समय के कई अखबारों ने भी इसे गति देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। अखबारों ने बागियों के भीतर नया जोश और जज्बा पैदा करने का काम किया। शायद इसी नाते सभी तथ्यों को परख कर लार्ड केनिंग ने 13 जून 1857 को काफी तीखी टिप्पणी की थी --
.......पिछले कुछ हफ्तों में देसी अखबारों ने समाचार प्रकाशित करने की आड़ में भारतीय नागरिको के ·े दिलों में दिलेराना हद तक बगावत की भावना पैदा कर दी है।
बगावत के विस्तार में निसंदेह अखबारों का भी योगदान था। देहली उर्दू अखबार भारत का ऐसा अकेला राजनीतिक अखबार था ,जिसने अन्य भाषाओं के अखबारों को भी राह दिखायी । भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार में इस अखबार के 8 मार्च 1857 से 13 सितंबर 1857 तक के अधिकतर अंक उपलव्ध हैं। दिल्ली की स्वतंत्रता के पहले के अंक भी काफी महत्व के हैं।
मौलवी मोहम्मद बाकर केवल देहली उर्दू अखबार के संपादक और स्वामी ही नहीं ,बल्कि जाने- माने शिया विद्वान भी थे। इस अखबार के प्रिंट लाइन में प्रकाशक के रूप में सैयद अव्दुल्ला का नाम छपता था। दरबार में भी मौलवी बाकर की गहरी पैठ और सम्मान था ,जबकि दिल्ली शहर में उनकी विशेष हैसियत थी। मशहूर शायर जौक समेत कई जानेमाने लोग उनके मित्र थे। शुरूआत में अपने पिता से ही मौलवी बाकर को शिक्षा मिली। बाद में दिल्ली के जाने-माने विद्वान मियां अब्दुल रज्जाक के सानिध्य में उन्होने शिक्षा पायी और 1825 में उनका देहली कालेज में दाखिला कराया गया,जहां अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वह शिक्षक बने ।
अपनी शिक्षा की बदौलत वह महत्वपूर्ण सरकारी ओहदों पर 16 साल तक रहे ,पर पिता के कहने पर उन्होने नौकरी छोड़ दी । उन्होने छापाखाना लगाया और देहली उर्दू अखबार शुरू किया हालांकि अंग्रेजी राज में अखबार निका लना बहुत टेढ़ा काम था । पर मौलवी ने उर्दू अखबार प्रेस खड़ा किया । जिस मकान से यह समाचार पत्र प्रकाशित किया गया वह दरगाहे पंजा शरीफ (कश्मीरी गेट) से बिल्कुल मिला था और आज भी मौजूद है। इस अखबार ने देश के विभिन्न भागों में अपने प्रतिनिधि भी नियुक्त किए थे।
मौलवी बाकर की कलम आग उगलती थी। उन्होने समाज के सभी वर्गो को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया । क्रांति के सबसे महत्वपूर्ण केद्र दिल्ली में यह अखबार क्रांति को जनक्रांति बनाने में काफी सहायक हुआ। देहली उर्दू अखबार बाकी अखबारों से इस नाते भी विशिष्ट है क्योंकि यही क्रांति के बड़े नायको के काफी करीब था और प्रमुख घटनाओं को इसके संपादक तथा संवाददाताओं ने बहुत नजदीक से देखा। वैसे तो जामे जहांनुमा को उर्दू का पहला अखबार माना जाता है,पर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका से बाहर था।
देहली उर्दू अखबार ने आजादी की लडाई में अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया और ऐतिहासिक बलिदान दिया। 1857 के पहले इस अखबार में दिल्ली के सभी क्षेत्रों को कवर किया जाता था। पर आजादी की जंग के विस्तार के साथ ही इस अखबार का तेवर भी तीखा होता गया। ईस्ट इंडिया कम्पनी के लूट राज के खिलाफ खुल कर इसने लिखा और 1857 से संबंधित खबरों को बहुत प्रमुखता से छापा। अखबार का प्रयास था िक महत्वपूर्ण घटनाओं के समय उसके संवाददाता मौके पर मौजूद रहें। इतना ही नहीं जनभावनाओं को और विस्तार देने तथा जोश भरने के लिए इस अखबार ने वीर रस का साहित्य भी छापा , धर्मगुरूओं के फतवों व बागी नेताओं के घोषणापत्र को प्रमुखता से स्थान मिला। ऐसी बहुत सी खबरें छापी गयीं जिससे बागियों का हौंसला और बुलंद हो। मौलवी बाकर के पुत्र मोहम्मद हुसैन आजाद काफी अच्छे शायर थे । क्रांति के दौरान उनकी रचनाएं अखबार के पहले पेज पर छपती थी। 1857 को लेकर उनकी यह नज्म 25 मई 1857 के अंक में , मेरठ में विद्रोही सेना की विजय के समाचार के साथ छपी थी---
सब जौहरे अक्ल उनके रहे ताक पर रक्खे
सब नाखूने तदबीरो खुर्द हो गए बेकार
काम आए न इल्मो हुनरो हिकमतो फितरत
पूरब के तिलंगो ने लिया सबको वहीं मार।
जून 1857 के बाद अखबार की भाषा-शैली में काफी बदलाव आया। वह जहां एक ओर सिपाहियों की खुल कर तारीफ कर रहा था वहीं, कमियों पर भी खुल कर कलम चला रहा था। सिपाहियों को वह सिपाह-ए-दिलेर ,तिलंगा-ए-नर-शेर तथा सिपाह ए हिंदुस्तान का संबोधन दे रहा था। हिंदू सिपाहियों को वह अर्जुन या भीम बनने की नसीहत दे रहा था तो दूसरी ओर मुसलमान सिपाहियों को रूस्तम ,चंगेज और हलाकू की तरह अंग्रेजों को समाप्त करने की बात कर रहा था। सिपाहियों के प्रति उसकी विशेष सहानुभूति तो दिखती ही है,तमाम खबरों को पढ़कर यह भी नजर आता है, उसके पत्रकारों की सिपाहियों के बीच गहरी पैठ थी।
देहली उर्दू अखबार का विचार पक्ष भी काफी मजबूत था। अखबार हिन्दू -मुसलिम एकता का प्रबल पैरोकार था। उसने कई मौको पर अंग्रेजों की सांप्रदायिक तनाव फैलाने की चालों को बेनकाब कर हिंदुओं और मुसलमानो दोनो को खबरदार किया । कई दृष्टियों से यह महान अखबार और उसके संपादक मौलवी बाकर सदियों तक याद किया जाते रहेगें। यही नहीं भारतीय पत्रकारिता के इस पहले महान बलिदानी से युवा पत्रकार हमेशा प्रेरणा पाते रहेंगे। सरकार को चाहिए , इस महान सेनानी की याद में कमसे कम एक स्मारक् बनाया जाये और डाक टिकट जारी किया जाये। इसी के साथ भारत के पत्रकार संगठनो को भी चाहिए, देश के इस पहले शहीद सेनानी की याद में 16 सितंबर को देश भर में शहादत दिवस भी मनाया जाए ।

रविवार, 24 अगस्त 2008

1857: इलाहाबाद का महान बागी नेता

मौलाना लियाकत अली
अरविन्द कुमार सिंह
1857 ki महान क्रांति का ज्वालामुखी ऐतिहासिक नगर इलाहाबाद तथा आसपास के गांवों में भी फूटा, पर यह अल्पकालीन रही। फिर भी जिस तरह से लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ी और बलिदान दिया, वह इतिहास में स्वर्णाच्छरों में दर्ज है। इलाहाबाद में क्रांति की चिंगारी को प्रयाग के पंडों ने हवा दी थी लेकिन जनता ने अपना नेतृत्व महान सेनानी मौलाना लियाकत अली को सौंपा। लियाकत अली ने ऐतिहासिक खुसरोबाग को स्वतंत्र इलाहाबाद का मुख्यालय बनाया। खुशरोबाग मुगल सम्राट जहांगीर के पुत्र शहजादा खुसरो द्वारा बनवाया गया था। इस विशाल शाही बाग के अमरूदों का दुनिया में कोई जोड़ नही है।मौलाना लियाकत अली को चायल इलाके के जागीरदारों तथा आम जनता ने खूब मदद पहुंचायी। सम्राट बादशाह बहादुर शाह जफर तथा बिरजिस कद्र ने उनको इलाहाबाद का गवर्नर घोषित किया था। बिरजिस कद्र की मुहरवाली घोषणा को शहर में जारी कर मौलाना ने लोगों से अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने की अपील थी । उन्होने अपने भरोसेमंद तेज हरकारों की सहायता से इलाहाबाद के क्रांति की सारी सूचनाएं तेज हरकारों के द्वारा कई बार दिल्ली दरबार भिजवायी बेगम हजरत महल समेत अन्य बड़े क्रन्तिनायकों के वह संपर्क में थे। मौलाना ने शासन थामते ही तहसीलदार, कोतवाल और अन्य अफसरों की नियुक्ति कर नगर में शांति स्थापना का प्रयास किया ।मेरठ की क्रांति की खबर 12 मई को ही इलाहाबाद पहुंच गयी थी। उस समय इलाहाबाद किले में यूरोपीय सिपाही या अधिकारी नहीं थे । कुल 200 सिख सैनिक ही किले की रक्षा मे लगे थे। उत्तर- पश्चिम प्रांतो की सुरक्षा के लिए इलाहाबाद किला अंग्रेजों की शक्ति का मुख्य केन्द्र था और वहां बड़ी मात्रा में गोलाबारूद का भंडार भी था। अगर आजादी के सिपाही इस किले पर अधिकार कर लेते तो शायद संघर्ष की तस्वीर ही बदल जाती ।इलाहाबाद में तमाम खबरें जनमानस को झंकृत करती रही और यहां असली क्रांति का सूत्रपात 6 जून 1857 को हुआ,तब तक कई अंग्रेज अधिकारी यहां पहुंच गए थे। उस दिन बागी सैनिको ने अंग्रेज अफसरों पर हमला बोल कइयों को मौत के घाट उतार दिया। लेकिन 107 अंग्रेज सैनिक जान बचा कर किले में छिपने में सफल रहे। उस समय इलाहाबाद में छठी रेजीमेंट देशी पलटन और फिरोजपुर रेजीमेंट सिख दस्तों का पड़ाव था। इलाहाबाद में क्रांति दबाने के लिए अंग्रेजो ने प्रतापगढ़ से सेना भेजी पर 5 जून 1857 को बनारस के क्रांतिकारी भी यहां पहुंच गए और समसाबाद में साफी खान मेवाती के घर पर एक पंचायत जुटी। इसमें तय किया गया िक सैनिक और जनता एक ही दिन क्रांति की ज्वाला जलाऐं। लेकिन इस बीच में अंग्रेज सेनाधिकारी सतर्क हो गए और उन्होने किले की हर हाल में रक्षा करने की रणनीति बना ली। यूरोपीय अफसरों तथा महिलाओं को किले में ही रखा गया।अंग्रेजो ने बागी हवाओं के आधार पर खतरे की आशंका भांप बनारस से आनेवाले क्रांतिकारिओं को रोकने के लिए देशी पलटन की दो टुकडिय़ां और दो तोपें दारागंज के करीब नाव के पुल पर तैनात कर दी गयी थीं। किले की तोपों को बनारस से आनेवाली सड़क की ओर मोड़ दिया गया था। नगर रक्षा में अलोपीबाग में देशी सवारो की दो टुकडिय़ां तैनात थीं,जबकि किले में 65 तोपची, 400 सिख सवार, और पैदल तैनात कर दिए गए थे। उसी दौरान दारागंज के पंडों ने इन सैनिको को बगावत के लिए ललकारा। अंग्रेजों को इसकी आहट मिल गयी तो उन्होने सैनिको को प्रलोभन देकर 6 जून की रात 9 बजे तोपों को किले में ले जाने का आदेश दे दिया। लेकिन सैनिको ने बगावत का फैसला ले लिया था । वे तोपों को छावनी में ले गए ,जहां से अंग्रेजों पर गोले दागने शुरू कर दिए गए। इस घटना ने इलाहाबाद में बगावत का रूप ले लिया।हालत काबू में लाने को दो सेनाधिकारी और सहायता को देशी पलटन को हुक्म मिला। पर सैनिको ने क्रांतिकारिओं के खिलाफ हथियार उठाने से मना कर दिया और वे उनके साथ हो लिए। अलोपीबाग के सैनिको ने लेफ्टीनेंट अलेक्जेंडर को गोली मार दी पर लेफ्टीनेंट हावर्ड जान बचाकर किले की ओर भागा। इसके बाद दोनो पलटनों के अधिकतर यूरोपीय अधिकारी मार दिए गए व अफसरों के बंगले आग का शिकार बन गए। पर इस घटना से अधिकारियों को और चौकन्ना कर दिया। ऐसा माना जाता है िक अगर उस समय सिख सैनिक भी आंदोलन की धारा में शामिल हो जाते तो इलाहाबाद किला भी क्रांतिवीरों के कब्जे में आ जाता।वैसे तो अंग्रेजों की रणनीति को देखते हुए बागी भी सजग थे और उन्होंने दारागंज और किले के नजदीक की सुरक्षा चौकी पर कब्जा कर लिया। यही नहीं पूरा नगर बगावत की चपेट में आ गया व तीस लाख रूपए का भारी भरक म खजाना भी उनके अधिकार मे आ गया। बागी नेताओं ने जेल से बंदियों को मुक्त करा दिया और तार की लाइन भी काट दी। 7 जून १८५७को शहर की कोतवाली पर क्रांति का हरा झंडा फहराने लगा । नगर में जुलूस निकाला जाने लगा और आसपास के गांवो समेत हर जगह बगावत का बिगुल बज गया। उस समय की हालत को सर जान कुछ इस तरह से लिखते हैं-इलाहाबाद में न केवल गंगापार बल्कि द्वाबा क्षेत्र की ग्रामीण जनता ने विद्रोह कर दिया। कोई मनुष्य नहीं बचा था जो हमारे खिलाफ न हो।इलाहाबाद में क्रांति की खबर पाने के बाद अंग्रेजों ने 11 जून को कर्नल नील जैसे क्रूर अधिकारी को दमन के लिए इलाहाबाद रवाना किया । नील ने इलाहाबाद किले से मोरचा संभाला। उसकी सेना काफी बड़ी थी जिसमें अधिकतर गोरे, सिख तथा मद्रासी सिपाही थे। 12 जून को नील ने दारागंज के नाव के पुल पर कब्जा किया जबकि 13 जून को झूसी में भी क्रांति दबा दी गयी। 15 जून को मुट्ठीगंज और कीटगंज पर अधिकार करने के बाद 17 जून को खुशरोबाग भी अंग्रेजों के हाथ लग गया।17 जून को ही माजिस्ट्रेट एम। एच। कोर्ट ने कोतवाली पर फिर से कब्जा जमा लिया। 18 जून का दिन इलाहाबाद ही नहीं भारतीय क्रांतिकारिओं के लिए काले दिन सा रहा। इस रोज छावनी, दरियाबाद, सैदाबाद, तथा रसूलपुर में क्रांतिकरिओं को भारी यातनाएं दी गयीं। 18 जून को इलाहाबाद पर अंग्रेजो का दोबारा अधिकार हो गया। चौक जीटी रोड पर नीम के पेड़ पर नील ने 800 निरीह लोगों को फांसी पर लटका दिया। जो लोग शहर छोड़ कर नावो से भाग रहे थे उनको भी गोली मार दी गयी। आसपास के गांवो में विकराल अग्निकांड हुए। खुद जार्ज केम्पवेल ने नील के कारनामों की निंदा करते हुए कहा-इलाहाबाद में नील ने जो कुछ किया वह कत्लेआम से बढ़ कर था। ऐसी यातनाएं भारतवासियों ने कभी किसी को नहीं दी।इलाहाबाद के ही निवासी और जानेमाने इतिहासकार व राजनेता स्व।विश्वंभरनाथ पांडेय लिखते हैं-हर संदिग्ध को गिरफ्तार कर उसे कठोर दंड दिया गया। नील ने जो नरसंहार किया ,उसके आगे जालियांवाला बाग भी कम था। केवल तीन घंटे चालीस मिनट में कोतवाली के पास नीम के पेड़ पर ही 634 लोगों को फांसी दी गयी। सैनिको ने जिस पर शक किया ,उसे गोली से उड़ा दिया गया। चारों तरफ भारी तबाही मची थी।नील क्रांतिकारिओं को एक गाड़ी में बिठा कर किसी पेड़ के नीचे ले जाया जाता था और उनकी गर्दन में फांसी का फंदा डाल दिया जाता था फिर गाड़ी हटा ली जाती थी। इलाहाबाद के नरसंहार में औरतों, बूढे लोगों और बच्चों तक को मारा गया। जिन्हे फांसी दी गयी उनकी लाशें कई रोज पेड़ पर लटकी रहीं। महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद को समर्पित बाग (कंपनी बाग) का कुँआ लाशों से पट गया था।समय के थपेड़े ने दुनिया बदल दी है पर नील के अत्याचारों के गवाह के रूप में चौक में एक नीम का पेड़ बचा हुआ है। इस पर 1 जनवरी 1957 को स्थानीय विधायक और महान सेनानी स्व।कल्याण चंद मोहिले (छुन्नन गुरू) ने शहीदो का एक स्मारक जन सहयोग से ही बनवाया। इस स्मारक का स्वाधीनता की स्वर्णजयंती के मौके पर नगर पालिका इलाहाबाद ने 15 अगस्त 1997 को जीर्णोद्दार किया । लेकिन क्रांति के नायक मौलाना लियाकत अली की याद में कुछ खास किया नहीं गया है। इलाहाबाद शहर उत्तरी के विधायक अनुग्रह नारायण सिह ने कुछ समय पहले केंद्रीय संचार राज्यमंत्री से मुलाकात कर इस महान क्रांतिवीर की याद में एक स्मारक डाक टिकट जारी करने का अनुरोध किया है।
लेकिन इलाहाबाद में क्रांति की ज्वाला अल्पजीवी होने के बाद भी मौलाना लियाक त अली के नेतृत्व में इलाहाबाद के वीरों ने एक - एक इंच जमीन पर डटकर लोहा लिया । मौलाना को जब अंग्रेजी खेमे की तैयारियों की पुख्ता खबर मिली तो उन्होने अपने साथियों से विचार विमर्श कर आगे की लड़ाई की तैयारी को परिजनो व करीबी सहयोगियों के साथ कानपुर में नाना साहेब के पास चले गए। अंग्रेजों ने उनकी गिरफ्तारी पर पांच हजार रूपए ईनाम रखा। लेकिन मौलाना दक्षिण होते हुए मुंबई पहुंच गए जहां उनको गिरफ्तार कर अंडमान की जेल में भेज दिया। उनको आजीवन कारावास की सजा मिली थी और जीवन के आखिरी दिन उन्होने वहीं बिताए और उनकी मौत भी वहीं हुई। उनकी मजार भी कालापानी में बनी है।मौलाना लियाकत अली इलाहाबाद से 21 किलोमीटर दूर जीटी रोड पर ही बसे महगांव के निवासी है। उनके परिजनो में कुछ लोग आज भी इसी गांव में रहते हैं। गांव के कुछ लोगों ने 1985-86 में अंडमान का दौरा किया था और उनके मजार पर फूल चढ़ाया था। 1957 में पंडित जवाहर लाल नेहरू भी महगांव एक कार्यक्रम में गए थे ।
आज लियाकत अली का घर ढ़हने के कगार पर है। इसके संरक्षण की दिशा मे राज्य सरकार का ध्यान नहीं है। एक बार जनसत्ता संवाददाता रहने के दौरान मैने जानेमाने समाजसेवी पं. सूर्यनारायण त्रिपाठी के साथ जाकर वहां की दुर्दशा पर एक रिपोर्ट भी लिखी थी। उसी दौरान तत्कालीन केंद्रीय मंत्री धर्मवीर के प्रयास से महगांव -चरवा राजमार्ग को लियाकत अली मार्ग का नाम मिला । मौलाना लियाकत अली को आज भी इलाहाबाद की क्रन्तिकारी पंरपरा में बहुत सम्मानजनक स्थान मिला है पर उनकी याद में एक सम्मानजनक स्मारक बनना अभी भी शेष है। यही नहीं इतिहास की किताबों में भी उनको अपेक्षित जगह मिलनी बाकी है।मौलवी लियाकत अली असाधारण योग्यता व क्षमतावाले व्यक्ति थे। उन्होने मजबूत व्यूहरचना के साथ इलाहाबाद किले पर कव्जा करने का प्रयास भी किया था पर सफल नहीं हुए। महान मुगल सम्राट अ·बर ने 1583 में संगम तट पर जो किला बनवाया था,संयोग देखिए, वह 1857 में अंग्रेजों का सबसे मजबूत ठिकाना साबित हुआ । यह किला 1798 में अवध के नवाब ने अंग्रेजों को सौंपा था। अंग्रेजों ने किले को अपना शस्त्रागार और सैनिक केन्द्र बनाया । अगर यह किला बागियों के हाथ आ गया होता तो शायद इलाहाबाद ही नहीं अवध की क्रांति का एक नया इतिहास लिखा जाता । पर होना कुछ और ही था ।

शनिवार, 23 अगस्त 2008

1857 की क्रांति के महान युवा शहीद

युवराज लाल प्रताप सिंह
अरविन्द कुमार सिंह
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में सभी जाति -धर्म के लोग जिस तरह से गोलबंद हुए थे उसी ने इस क्रांति को जनक्रांति में बदल दिया था। फिर भी बहुत से ऐसे लोग हैं जिनके बारे में अभी भी हमारे पास बहुत सीमित सूचनाएँ उपलव्ध हैं। इन्ही में अमर शहीद लाल प्रताप सिंह का नाम भी शामिल है। हालांकि वह एक जानीमानी रियासत से संबंध रखते थे और उन्होने मात्र 26 साल की उम्र में ऐतिहासिक चांदा की लड़ाई में अपने प्राणों का बलिदान हंसते-हंसते दे दिया था।
लाल प्रताप सिंह (1831-1858) की वीरगाथा को अभी भी उचित सम्मान मिलना शेष है। लाल प्रताप सिंह आजादी के आंदोलन में ऐतिहासिक भूमिका निभानेवाली प्रतापगढ़ के कालाकाकर राज के जयेष्ट युवराज थे। उस जमाने की सबसे कठिन लड़ाइयों में एक चांदा की लड़ाई में वह अंग्रेजों से बहुत वीरता से टक्कर लेते हुए 19 फरवरी 1858 को शहीद हुए थे। एक लंबे समय तक गुमनामी के अंधेरे में रहे इस महान नायक की याद को स्थायी बनाने के लिए उनके शहादत तिथि यानि 19 फरवरी 2009 को भारतीय डाक विभाग एक विशेष स्मारक डाक टिकट जारी करने जा रहा है। इस प्रयास के लिए निश्चय ही फिलैटली विभाग बधाई का पात्र है। यही प्रयास अन्य बलिदानियों के लिए किया जाना चाहिए।
वास्तव में 1857 के दौरान इलाहाबाद व आसपास के इलाको में भारी दमनराज चलाने के बाद दंभ से भरा जनरल नील जब सुल्तानपुर के रास्ते लखनऊ की ओर जा रहा था तो बेगम हजरत महल ने कालाकांकर नरेश तथा अमेठी के राजा लाल माधव को उसकी सेना को रोकने का संदेश भेजा। नील लखनऊ रेजीडेंसी को मुक्त कराने के इरादे से काफी बड़ी सैन्य तैयारी

साथ जा रहा था।
इस अवसर पर कालाकाकर नरेश ने अपने सबसे प्रिय पुत्र युवराज लालप्रताप सिंह को चांदा की घेराबंदी कर अंग्रेजों से मुकाबला करने का जिम्मा सौंपा। युवराज अपने साथ सैनिको और बड़ी संख्या में अपने समर्थक दिलेर किसानो के साथ अक्तूबर 1857 के आखिर में मोरचे पर पहुंच गए। बागियों ने चांदा तथा अमेठी में अंग्रेजों के खिलाफ जोरदार मोरचा लिया।
चांदा फतह करने के इरादे से अंग्रेज भारी तामझाम और सैन्य तैयारी के साथ निकले थे। पर पर चांदा की लड़ाई उनके लिए वाटरलू जैसी होती दिखी। अंग्रेजों के छक्के छूट गए और उनको बुरी तरह पराजित होना पड़ा। इस पराजय से अंग्रेज काफी घबरा गए। उधर बागियों ने विजय के बाद भी सतर्कता बरकरार रखी और चांदा को अपना मजबूत किला बनाए रखा। अंग्रेजों के खिलाफ जंग में चांदा का मोरचा अवध का ऐतिहासिक मोरचा माना जाता है।
उपलब्ध दस्तावेजों के मुताबिक 18 फरवरी 1858 को चांदा की लड़ाई में 20 हजार से अधिक स्वातंत्र्य वीरों ने भाग लिया था। हालांकि इनमें पैदल सिपाही 2500 और सवार 1400 के आसपास ही थे। बाकी जंग में शामिल होने पहुंचे स्थानीय किसान और मजदूर थे। उनके पास उन्नत हथियार या तोपें नहीं थीं, बल्कि लाठी, भाला, बल्लम और परंपरागत हथियार तथा कइयों के पास तलवारे थी। इससे पता चलता है fक क्रांति नायको के पास किस बड़े स्तर का जनसमर्थन था।
लेकिन चांदा की लड़ाई में बागी नेताओं के पास विभिन्न श्रेणी की 23 तोपें भी थीं। इन सारी तैयारियों जायजा लेकर इस बार हमला अंग्रेजों ने सारे तरीको को अख्तियार करके किया । इस बार अंग्रेजों की कुटिल नीति और खुफिया तैयारियों के चलते बागियों की पराजय हुई। चांदा की लड़ाई में महान सपूत युवराज लाल प्रताप शहीद सिंह की शहीदत क्रान्तिकारियों की सबसे बड़ी क्षति थी। चांदा में उनकी शहादत की तिथि 19 फरवरी 1858 माना जाता है। यही नहीं चांदा की ऐतिहासिक लड़ाई में युवराज लाल प्रताप सिंह के चाचा राजा माधव सिंह भी लड़ते -लडते मातृभूमि पर शहीद हो गए।
चांदा की लड़ाई आज भी लोक गाथाओं और लोक गीतों में जीवित है। कालाकंकर के युवराज की वीरता का बयान आज भी स्थानीय लोक गीतों में होता और ग्रामीण उनको याद करते हैं। उनकी वीरता का बखान लोक गीतों में कुछ इस तरह है-
काले कांकर का बिसेनवा चांदे गाड़े बा निसनवां...
चांदा की विजय के बाद ही इलाहाबाद-लखनऊ के बीच का बंद संचार तंत्र अंग्रेजों की आवाजाही के लिए खुल सका । चांदा इलाके के निवासी, वरिष्ठ राजनेता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष सुभाष चंद्र त्रिपाठी ने हाल में इस लेखक से बातचीत में कहा था िक चांदा के लोक जीवन में आज भी गांव-गांव में इस लड़ाई की याद होती है। उस जमाने में जनक्रांति का व्यापक असर सर्वत्र था और गांवो में अजीब सा ज्वार उठा था। इन किसानो के नाते ही आसपास की नदियों को पार करने में भी किसानो को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। बागी किसानो का नदी के घाटों पर पहरा था और इस नाते अंग्रेजों को एक -एक इंच जमीन पर आगे बढऩे में दिक्कतें आयी। उन दिनो नदियों पर पुल नहीं थे और खास तौर पर सेनाओं को नदी पार कराने के लिए नावों का पुल बनाना पड़ता था। पर बागियों के साथ मल्लाहों ने भी कंधे से कन्धा मिला लिया था। हिंदू- मुसलमान तो लड़ाई में एक ही सिक्के के दो पहलू थे।
लेकिन लाल प्रताप की शहादत के बाद भी उनके परिजनो और खास तौर पर उनके पुत्र राजा रामपाल सिंह ने आगे अंग्रेजों से जंग जारी रखी। राजा रामपाल सिंह (1848-1909) कांग्रेस के संस्थापको में प्रमुख थे और उन्होने जनजागरण के लिए हिंदी दैनिक हिंदोस्थान का प्रकाशन भी 1885 में कालाकांकर से शुरू किया था कालाकाकर राज की नींव युवराज लाल प्रताप के पिता राजा हनुमत सिंह (1808-1885) ने रखी थी। इस राज ने आजादी की लड़ाई में काफ़ी मदद की और बहुत से क्रन्तोकारिओं को यहां से साधन और शक्ति मिली। महात्मा गांधी तथा पंडित नेहरू भी यहां से काफी प्रभावित थे।
इस राजवंश का इतिहास काफी गौरवशाली रहा है। गोरखपुर का मझौली गांव इस राजवंश का मूल स्थान रहा है। वहां से चलकर मिर्जापुर के कान्तित परगना से होते हुए इस वंश के राय होममल्ल ने मानिक पुर से उत्तर बडग़ौ नामक स्थान पर अपना महल बनवाया था। वहीं उनका 1193 में राज्याभिषेक हुआ। इसके काफी बाद में जब इस राजवंश के राजा हनुमत सिंह उत्तराधिकारी बने तो उन्होने कालाकाकर को अपनी राजधानी बनाने का फैसला किया । इसी परिवार से राजा अवधेश सिंह, राजा दिनेश सिंह जैसे नामी गिरामी व्यक्ति पैदा हुए। राजा दिनेश सिंह आजादी के बाद लंबे समय तक केंद्रीय मंत्री रहे ,जबकि उनकी पुत्री राजकुमारी रत्ना सिंह भी प्रतापगढ से संसद सदस्य रहीं।
लेकिन यह कचोटनेवाली बात है िक 1857 के महान शहीद की याद में चांदा में 150 सालों के बाद भी कोई स्मारक नहीं बना है और समय के साथ लोग इस महान योद्दा के योगदान और बलिदान को भूलते जा रहे हैं। युवराज लाल प्रताप सिंह की याद में कालाकांकर में जरूर कीर्ति स्तंभ के तौर पर प्रताप द्वार बना हुआ है। लेकिन इतिहास की किताबों में उनकी वीरता के बारे में जानकारी नहीं मिलती है। पर उस समय की सरकारी रिपोर्टो में उनका प्रताप जरूर नजर आता है।
युवराज लाल प्रताप सिंह की ही राह पर उनके वीर पुत्र राजा रामपाल सिंह चले। उन्होने राज और रियासत की परवाह किए बिना लोगों के बीच अलख जगाने की भावना से 1885 में हिंदी दैनिक हिंदोस्थान का प्रकाशन शुरू किया । उसी साल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई थी। उपलब्ध साक्ष्यों के मुताबिक हिंदोस्थान समाचार पत्र सालाना 50,000 रु .घाटा दे रहा था पर राजा रामपाल सिंह ने इसकी परवाह नहीं की । प्रतापगढ़ के ही निवासी और राष्ट्रीय राजधानी के वरिष्ठ पत्रकार रमाकान्त पांडेय ने इस अखबार पर काफी अध्ययन किया है। उनका कहना है िक लगातार घाटे में राजा रामपाल सिंह ने इस दैनिक को 23 सालों तक प्रकाशित किया । उस दौरान के सारे अखबारों में हिंदोस्थान की ही सबसे लंबी आयु थी। हिंदोस्थान के ही जन्म के साल कानपूर से भारतोदय शुरू हुआ जो चंद महीनो में ही बंद भी हो गया और उसकी प्रति भी आज दर्शन को उपलब्ध नहीं है।
हिंदोस्थान का भारतीय पुनर्जागरण आंदोलन में काफी महत्वपूर्ण योगदान था। इस पत्र में राजा रामपाल सिंह खुद लिखते रहते थे। कालाकांकर से इलाहाबाद तक 40 मील की दूरी तक तार लाइन भी इस अखबार के लिए तब बिछाई गयी,जब वहां तारघर भी नही था। हिंदोस्थान के लिए रायटर समाचार एजेंसी की सेवा ली गयी। हिंदोस्थान रात में हैंड प्रेस से छपता था और नाव से गंगा पार भेजा जाता था। वहां से घोड़ा गाड़ी से सिराथू रेलवे स्टेशन पहुंचाया जाता जहां से इसे इलाहाबाद और कानपुर भेजा जाता था।
इस महान समाचार पत्र के पहले संपादक पंडित मदनमोहन मालवीय थे। इस पत्र से अलग होकर जब मालवीयजी इलाहाबाद वकालत करने लगे तो भी पत्र को उनका सहयोग मिलता रहा। मालवीयजी के बाद इसके संपादक मंडल में पंडित प्रताप नारायण मिश्र, अमृतलाल चक्रवर्ती , बालमुकुंद गुप्त, बाबू गोपाल सिंह गहमरी,शशि भूषण चटर्जी, लालबहादुर बीए, गुलाब चंद्र चौबे तथा पंडित शीलता प्रसाद जैसे उस जमाने के मूर्धन्य लोगों का नाम जुड़ा।
उस समय यह रियासत साधारण गांव में थी । ऐसे में वहां से अखबार निकालना कोई खेल नहीं था। पर उन्होने यहां से हिंदी पत्रकारिता के इतिहास को नयी दिशा दी। हिंदी का पहला सर्वांगीण दैनिक पत्र हिंदोस्थान ही माना जाता है। वैसे 1854 में कोलकाता से प्रकाशित दैनिक समाचार सुधावर्षण को हिन्दी का पहला दैनिक अखबार माना जाता है। पर यह बंगला और हिंदी दोनो में छपता था।

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

1857 और नेपाल की तराई

अरविन्द कुमार सिंह
जिस समय भारत में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को समाप्त घोषित कर अंग्रेज जश्न में डूबे थे और बागी राजाओं, गांवों और जमींदारों की संपत्तियों तथा जमीनो को जब्त कर अपने भक्तों के बीच में बांटने में जुटे हुए थे, उस समय भी नेपाल की तराई से घोर कष्ट और अभावों के बीच कई जानेमाने सेनानी जंग जारी रखे हुए थे। बेहद विपरीत माहौल के बीच भी उनमें जीने और फिर से लडऩे का दम-खम बरकरार था। 1857 की महान क्रांति को जनक्रांति बनानेवाले अवध के करीब सभी प्रमुख विद्रोही नेताओं ने बेगम हजरत महल तथा अपने पुत्र बिरजीस कद्र के संपर्क में रहते हुए नेपाल की तराई में जीवन की आखिरी जंग भी लड़ी थी । नेपाल की तराई से लगे मौजूदा उ.प्र. तथा बिहार का समूचा इलाका इस महान क्रांति में शामिल था। अंग्रेजों को यहां एक - एक इंच जमीन वापस लेने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। भारतीय स्वतंत्रता के लिए अपना घर-परिवार और वैभव सब गंवा देनेवाले सभी प्रमुख सेनानी नेपाल की तराई में ही गुमनाम मौत मरे। उनके साथ गए हजारों लोगों का क्या हुआ,इस पर आज तक इतिहास में रोशनी नहीं पड़ती। भारतीय और अंग्रेज इतिहासकारों का ध्यान नेपाल की उस तराई की तरफ कभी नहीं गया। इतिहासकारों ने 1857 की महान क्रांति का अध्याय 18 अप्रैल 1859 को महान सेनानी तात्या टोपे ( 1814-1859) की फांसी के साथ ही समाप्त कर दिया। 1857 सिपाही विद्रोह था या जनक्रांति इसे लेकर अंग्रेज या और भारतीय इतिहासकारों में भले ही अलग -अलग मत रहे हों पर दोनो इतिहासकार इस पर एक मत हैं िक प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का सूर्यास्त तात्य टोपे की फांसी के साथ हो गया था। पर राष्ट्रीय अभिलेखागार में उपलब्ध दस्तावेज तथा नेपाल की तराई से लगे जिलों के म्युटिनी बस्ते और अन्य तथ्य बताते हैं िक तराई में जहां एक ओर कई जानेमाने क्रांति नायक ·अंग्रजों से मुकाबला करते पहुंचे थे,वहीं बहराइच, गोंडा,बस्ती और गोरखपुर की सीमा से हजारों की संख्या में किसान और मजदूर भी सिपाहियों के साथ पलायन कर गए। इतिहास गवाह है िक ये इलाके हर जगह आंदोलन का चिराग बुझ जाने के बाद भी अंग्रेजों से मोरचा ले रहे थे। अंग्रेजों की तमाम घेराबंदी को तोड़ कर और हजारों लोगों ने शहादत देकर क्रांति के अग्रणी नेताओं तथा उनके परिजनो को सुरक्षित नेपाल की सीमा तक पहुंचाया। बहुत से सेनानी और नायक भारतीय सीमा में अंग्रेजों से मुकाबला करते शहीद हो गए थे। पर भारत -नेपाल के नागरिको में उस कठिन दौर में भी आपसी रिश्तों की जो मजबूती कायम रही,उसे इतिहास के पन्नों में याद भी नहीं किया जाता है।
नेपाल और भारत के तराई के लोगों के बीच सदियों से गहरे संबंध रहे हैं। इन इलाको में बहुत सी समानताएं हैं। बोली -बानी से लेकर सामाजिक ताना -बाना एक जैसा ही है। इसी नाते यहां के तमाम जननेताओं और बागी सैनिको को नेपाल की राजसत्ता के भारी विरोध के बाद भी नेपाल की तराई के लोंगों ने गले लगाया और अपनी गरीबी तथा तंगहाली के बाद भी उनकी यथासंभव मदद की । यह बात किसी से छिपी नहीं है िक भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान नेपाल के प्रधानमंत्री राणा जंग बहादुर ने खुल कर अंग्रेजों का साथ दिया था। अगर उस समय अवध में नेपाली और पटियाला की फौजें न पहुंची होती तो शायद आजादी का चिराग लंबे समय तक जलता ही रहता। पर उन्होने अंग्रेजों का साथ दिया और अवध की ऐतिहासिक लूट में भी भागीदार बने,शायद इसी नाते नेपाली राजसत्ता के प्रति अवध के लोगों में पीढिय़ों की नाराजगी भरी है। पर अगर नेपाल की तराई के लोगों ने 1857 के महान नेताओं की मदद न की होती तो बेगम हजरत महल से लेकर नाना साहब और राणा बेनीमाधव से लेकर राजा देवीबख्श सिंह सभी प्रमुख नेता नेपाल की सीमा में दाखिल होते ही अंग्रेजों की पकड़ में आ गए होते। इन नेताओं पर अंग्रेजों ने भारी भरकम पुरस्कार भी घोषित कर रखे थे। इन तथ्यों के साथ सवाल यह उठता है िक क्या नेपाल की तराई के 21 जिलों में रह रहे मधेशिया लोगों के साथ 1857 की क्रांति के दौरान कोई संबंध रहा था? मधेश क्षेत्र में जो लोग रह रहे हैं, उनमें से तमाम परिवारों के पुरखों के तार निश्चय ही 1857 से जुड़े थे। उनकी मदद से ही बहुत से क्रांतिकारी नेपाल में स्थायी रूप से बस सके और बहुतों के परिवार तराई में मुख्यधारा में शामिल हो सके । भारतीय मूल के मधेशिया आज भी नेपाल की मुख्यधारा में शामिल होने के लिए जंग कर रहे हैं। मालाबार के विपरीत मौसम की तरह उनके भी परिवारों के हजारों लोगों ने शहादत दी। नेपाल की कुल 2.30 करोड़ आबादी में से मधेशियों की संख्या 1 करोड़ से भी अधिक मानी जाती है। विभिन्न इलाको में इनके पचास से अधिक संगठन कार्यरत हैं। पड़ोसी यूपी तथा बिहार के नागरिको को उन्होने 1857 से १९४७ के बीच लगातार संघर्षों में मदद की । नेपाल में आज भी 40-45 लाख मधेशिया लोग नागरिकता से वंचित हैं। लोकतंत्र के नए झोंके में भी मधेशिया लोग बहुत सहज नहीं हो सके क्योंिक अरसे से वे माओवादियों के निशाने पर भी रहे हैं। नेपाल की आबादी में करीब 51 फीसदी होकर भी वे यूपीवाले या बिहारी नाम से पुकारे जाते हैं। हिंदी के साथ नेपाल की तराई में मैथिली, भोजपुरी, अवधी तथा थारू बोली जाती है। मधेशी इलाका नेपाल के कुल क्षेत्रफल का 21 फीसदी है। यही इलाका नेपाल का अन्न भंडार भी है। अवध की क्रांति को वे अंग्रेजी इतिहासकार भी जनक्रांति मानते हैं, जो 1857 को साफगोई से सिपाही विद्रोह बताते हैं। अन्य जगहों की तुलना में अवध में क्रांति की तैयारी और सभी जगहों से अच्छी थी। अंग्रेजों के तमाम प्रयासों के बाद भी 18 माह तक अवध में स्वतंत्रता का दीप जगमगाता रहा और तराई से भी सरकार चलती रही। अवध को भारी भरकम फौजों और नेपाल से लेकर पटियाला तक की सेनाओं की मदद से दोबारा जीता जा सका। भारतीय सीमा में बेगम हजरत महल का आखिरी मुकाम बहराइच का बौंडी का ऐतिहासिक किला था ।मार्च 1858 में लखनऊ में आखिरी जंग के पहले की सभी लड़ाइयों में क्रांतिकारी ही जीते थे। 18 मार्च को बेगम तथा 21 मार्च को मौलवी अहमद उल्लाह शाह की पराजय के बाद भी बागियों ,जिसमें ज्यादातर किसान और श्रमिक थे, ने खून के आखिरी कतरे तक अंग्रेजों से संघर्ष किया । लखनऊ छोडऩे के बाद बेगम अपने करीबी साथियों के साथ तराई के ही जिले शाहजहांपुर गयीं और उसके बाद बहराइच के बौडी के किले को और मजबूती दिला कर युद्द जारी रखा। जब चारो तरफ से अंग्रेजों ने जोरदार घेराबंदी कर दी तो जुलाई 1858 में उन्होने अपने साथियों से सलाह मशविरा कर बौंडी किला छोड़ कर नेपाल की तराई में जाना उचित समझा। बौंडी (बहराइच) का किला घाघरा तट पर था जिसे अंग्रेजों ने उड़ा दिया था। वहां पर बेगम के साथ कई तोपें 15,000 की सेना,500 बागी सिपाही तथा 16 हजार समर्थक मौजूद थे। बौंडी किले से ही बिरजीस कद्र ने 9 मई 1858 नेपाल में राणा जंगबहादुर को पत्र लिख कर दोस्ती का हवाला दिया और मदद मांगी। पत्र में उन्होने अंग्रेजों की मंशा पर सवाल खड़ा करने के साथ हिंदुओं और मुसलमानो को भ्रष्ट करने के लिए गाय और सुअर की चर्बी का उपयोग करने जैसी बातें लिखने के साथ उनसे पूछा िक आप तो हमारे दोस्त थे पर अंग्रेजों की मदद के लिए अवध में आपकी सेनाएं कैसे आ गयीं? नेपाल की सेनाओं ने मंदिर,मस्जिद और इमामबाड़ा क्यों तबाह कर दिया? पत्र में बिरजीस कद्र ने उनसे अंग्रेजों को समाप्त करने में मददगार बनने की अपील की थी। पर इस पत्र का जबाव बिरजीस कद्र का दूत 17 जुलाई 1858 को उनके पास लेकर पहुंचा जिसमें लिखा था िक राणा इस लड़ाई में अंग्रेजो का साथ देंगे। शायद बेगम नेपाल को भरोसा था िक पुराने संबंधों के आधार पर नेपाल बागियों को मदद देगा। लेकिन यह दिवास्वप्न था। नेपाल के इंकार के बाद बागियों की क्या मनोदशा रही होगी, इसकी सहज परिकल्पक ना की जा सकती है।जनवरी 1859 में विशेष आयुक्त मेजर बैरो ने मुख्य आयुक्त लखनऊ को पत्र लिख कर बेगम हजरत महल तथा उनकी सेना की नेपाल में अवस्थिति का नक्शा भेज कर यह भी अवगत कराया था िक उनके पास 7 तोपें हैं और वे दोबारा अवध में समस्या खडी कर सकती हैं। लेकिन उनकी सेना में वास्तव में कितने लड़ाके हैं इसका अंदाज अंग्रेजी खुफिया तंत्र नहीं लगा सका था। अंग्रेजी खुफिया दस्तावेजों के मुताबिक 28 मार्च 1859 को बेगम हजरतमहल,बिरजीस कद्र तथा नाना साहब बुटवल में थे। इसी के बाद 7 अप्रैल 1859 को इन सबके साथ रूहेलखंड के महान बागी नेता खान बहादुर खान भी आ मिले और ये सभी नेपाल के नियाकोट किले में एक साथ रहे। आपस में बागी नेताओं के मेल जोल और एक दूसरे का पता-ठिकाना होना यह तो साबित करता है िक इनमें आपस में कितने मजबूत संपर्क बने हुए थे। अन्यथा सभी चोटी के नेताओं पर पुरस्कार था और अंग्रेज अफसर इनकी में दिन रात एक किए हुए थे। नवंबर 1859 तक बेगम नेपाल की तराई से जंग जारी रखे थीं। उनको के अपने पाले में खींचने के लिए अंग्रजो ने हर संभव कोशिश की थी और आखिर में एक लाख रूपए महीने की पेंशन तथा लखनऊ में रहने के लिए महल देने का प्रस्ताव भी रखा गया था । लेकिन लेकिन 1859 तक बेगम के करीबी साथी और सहयोगी राणा बेनामाधव,राजा देवीबख्श सिंह,राजा नरपत सिंह तथा राजा गुलाब सिंह अपने रणबांकुरों के साथ लड़ते रहे। इन्होने माफी मांगने और अपना राज वापस लेने से इंकार कर दिया। अंग्रेजो के पेंशन तथा समर्पण प्रस्ताव को उनके सभी करीबी साथियों ने ठुकरा दिया। आखिरकार तमाम पत्राचारों के बाद बेगम, उनके पुत्र तथा कई औरतों को नेपाल में शरण मिल गयी, पर लालची नेपाल राणा ने इसके बदले में अवध की आखिरी तमाम निशानियों और करोड़ो की दौलत अपने पास रख ली। यह बात अवध के तराई इलाको में आज भी बुजुर्गो के जुबान से सुनी जाती है।

बस्ती की महान सेनानी रानी अमोढा

वीरांगना रानी तलाश कुवरि
अरविन्द कुमार सिंह
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में दूरदराज के इलाको में जमीनी स्तर के बहुत से जनसंघर्षो को इतिहासकारो ने नजरंदाज किया गया है । इसी नाते बहुत से क्रांति नायको और नायिकाओं की वीरता की कहानियां अभी भी अपेक्षित महत्व नहीं पा सकी हैं। ऐसी ही एक महान सेनानी बस्ती जिले की अमोढ़ा रियासत की रानी तलाश कुवंरि थीं जिन्होने अंग्रेजों से आखिरी साँस तक लड़ाई लड़ी। उन्होने अपने इलाको में लोगों में अंग्रेजो के खिलाफ ऐसी मुहिम चलायी थी कि रानी की शहादत के बाद कई महीने जंग जारी रही। लेकिन अपना अपना सर्वस्व बलिदान कर देनेवाली रानी का इतिहास लिखे बिना ही रह गया। पर आज भी रानी अमोढ़ा के नाम से वे लोकजीवन में विद्यमान हैं और अंग्रेजों की तोपों से खंडहर में तव्दील उनका महल और किला बरबस ही उनकी याद दिलाता रहता है। रानी का नाम स्थानीय लोग नहीं जानते। वे पड़ोस की रानी तुलसीपुर (गोंडा जिला,उ.प्र।) की तरह ही रानी अमोढ़ा के नाम से ही जानी जाती हैं। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 140 सालों तक गुमनाम रहीं इस महान रानी के बलिदानी भूमिका की कुछ तलाश 1997 में बस्ती मंडल के आयुक्त विनोद शंकर चौबे ने की । उनके प्रयास से वीरांगना रानी की याद में जिले में पहली बार जिला महिला चिकित्सलय बस्ती का नाम रानी के नाम पर कराया । इसी के बाद वीरांगना रानी तलाश कुवंरि जिला महिला चिकित्सालय की पर्चियों ने इलाके को बताना शुरू किया कि रानी अमोढ़ा का असली नाम क्या है। पर अपने वीरता के किस्से -कहानियों के लिए मशहूर रानी क्रांति की किताबो में जगह नहीं पा सकी हैं, न ही उनके बारे में लोग विस्तार से जानते ही हैं।
रानी अमोढ़ा की लोकप्रियता और वीरता का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि उन्होने 10 महीने अंग्रेजों को खुली चुनौती दी। रानी की शहादत के बाद भी स्थानीय ग्रामीणों ने उस समय तक जंग जारी रखी जब सारी जगह शोले बुझ चुके थे। रानी को घाघरा नदी के तटीय या माझा इलाके में इतना बड़ा जनसमर्थन हासिल था कि यहां की बगावत से निपटने के लिए फरवरी 1858 में अंग्रेजों को नौसेना ब्रिगेड की तैनाती भी करनी पड़ी थी। स्थानीय ग्रामीणों ने अंग्रेजी नौसेना तथा गोरखाओं के छक्के काफी दिनो तक छुड़ाए। आसपास के जिलों गोंड़ा और फैजाबाद में भी क्रांति की ज्वाला दहक रही थी और नदी के तटीय इलाको में घाटों की पहरेदारी तथा चौकसी के नाते अंग्रेजों का आना जाना असंभव हो गया था।गोरखपुर-लखनऊ राजमार्ग पर बस्ती-फैजाबाद के मध्य बसे छावनी कसबे से महज एक किलोमीटर दूरी पर स्थित बस्ती जिले की अमोढ़ा रियासत एक जमाने में राजपूतों की काफी संपन्न रियासत हुआ करती थी। अमिताभ बच्चन के पिता जानेमाने लेखक स्व.हरिवंशराय बच्चन का बचपन भी अमोढ़ा राज की छांव में ही बीता। उनके पिता अमोढ़ा राजा के कर्मचारी थे। क्या भूलू क्या याद करू में हरिबंश राय बच्चन ने अपने बचपन के अमोढा को याद भी किया है। लेकिन यह उल्लेखनीय तथ्य है कि १८५७ के महान संग्राम में बस्ती जिले में केवल नगर तथा अमोढ़ा के राजाओं ने ही अंग्रेजों के खिलाफ अपना सर्वस्व बलिदान दिया ,जबकि बाकी रियासतें अंग्रेजों की मदद कर रही थीं। पर जिले के हर हिस्से में किसान तथा आम लोग अपने संगठन के बदौलत अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे। अमोढ़ा तो कालांतर में बागियों का मजबूत केन्द्र ही बन गया था,जहां बड़ी संख्या में तराई के बागी भी पहुंचे थे। अमोढ़ा की रानी ने इसी जनसमर्थन के बूते अंग्रेजो को लोहे के चने चबवा दिए।रानी अमोढा 1853 में राजगद्दी पर बैंठीं और उनका शासन 2 मार्च 1858 तक रहा। रानी अमोढ़ा भी झांसी की रानी की तरह निसंतान थीं। अंग्रेजों ने उनके शासन के दौरान कई तरह की दिक्कतें खड़ी करने की कोशिश की ,पर स्वाभिमानी रानी ने हर मोरचे का मुकाबला किया । रानी ने 1857 की क्रांति की खबर मिलने के बाद अपने भरोसेमंद लोगों के साथ बैठके की और फैसला किया कि अंग्रेजों को भारत से खदेडऩे में स्थानीय किसानो और लोगों की मदद से जी जान से जुट जाना चाहिए। उन्होने बस्ती-फैजाबाद के की सड़क और जल परिवहन ठप करा दिया था। संचार के सारे तार टूट जाने से अंग्रेज बुरी तरह बौखला गए। रानी अंग्रेजों के आंखों की किरकिरी पहले से ही बन गयीं थी। अंग्रेजों के खिलाफ जहर उगलनेवाली रानी को अपने अभियान में व्यापक जनसमर्थन मिला और इलाकाई किसानो ने रानी की शहादत का बदला ही नहीं लिया बल्कि एक -एक इंच जमीन पर अंग्रेजों से बहादुरी से लड़े। रानी की शहादत के बाद भी अंग्रेजों के खिलाफ जोरदार जंग जारी रही। सूर्यवंशी राजपूतों के गांव शाहजहांपुर के क्रांतिकरिओं ने अंग्रेजों की छावनी पर हमला करने तक का दुस्साहस उस समय किया । इस घटना के बाद 1858 में इस गांव का नाम ही गुंडा कर दिया गया। आज भी आजादी के 60 साल के बाद यह गांव गुंडा कुवर के नाम से जाना जाता है । मेरे पिता स्व श्री ठाकुर शरण सिंह ने गांव नाम बदलने के लिए काफ़ी कोशिशे की,लेकिन उनको सफलता नही मिल पाई ।
नेपाली सेना की मदद से 5 जनवरी 1858 को जब गोरखपुर पर अंग्रजो ने अपना कब्जा कर लिया तो उनका ध्यान बस्ती के दो सबसे बागी इलाको की ओर गया । इसमें अमोढ़ा भी एक था। अंग्रेजी सेनाओं ने रोक्राफ्ट के नेतृत्व में अमोढ़ा की ओर कूच किया पर दूसरी तरफ गोरखपुर से पराजय के बाद बागी नेता और सिपाही भी राप्ती पार कर बस्ती जिले की सीमा में पहुंचे और उन्होने उस समय के क्रांति के केन्द्र बने अमोढ़ा के ओर कूच किया । इससे बागियों की संख्या बढ़ गयी। लेकिन अंग्रेजों की लम्बी फिर भी रानी अमोढ़ा के नेतृत्व में अंग्रेजी फौजों को बागियों ने कड़ी चुनौती दी और अंग्रेजी सेना को करारी शिकस्त मिली। पर इस जंग में 500 भारतीय सैनिक मारे गए। इसके बाद हालात की गंभीरता को देखते हुए बड़ी संख्या में अंग्रेजी फौज और तोपें जब अमोढ़ा के लिए रवाना की गयी तो हरकारों के माध्यम से बागियों को यह खबर मिल गयी। बागी सैनिक पड़ोस के बेलवा क्षेत्र की ओर कूच कर गए और रानी अमोढ़ा ने भी अपनी रणनीति बदल कर हालत की समीक्षा की और खुद पखेरवा की ओर चली गयीं ताकि किले का जायजा लेकर बाकी तैयारियां कर ली जायें। लेकिन अंग्रेजों ने भी यहां काफी संख्या में खबरची और भेदिए तैनात कर दिए थे। इस नाते अंग्रेजों को जमीनी हकीकत को देखकर यह आभास हो गया था िक नदी के तटीय इलाको में बाढ़ की तरह फैली जन बगावत को आसानी से नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। ऐसे में कर्नल रोक्राफ्ट ने नौसेना को भी बुला लिया। नौसेना का स्टीमर यमुना घाघरा नदी पर हथियारों के साथ तैनात रहा। सिख और गोरखे भी इन सैनिको की मदद के लिए पर्याप्त संख्या में तैनात थे। सारे तथ्यों का आकलन करके ही एक अन्य सैन्य अधिकारी ले.कर्नल ह्यूज ने गोंडा की ओर से आकर पखेरवा के करीब रानी पर हमला कर दिया।रानी तथा उनके साथी सैनिको ने बहुत ही बहादुरी से मोरचा संभाला और अंग्रेजी सेना को पीछे हटने के लिए विवश कर दिया। लेकिन इसी बीच कर्नल रोक्राफ्ट भी पूर्व नियोजित रणनीति के तहत बड़ी सेना के साथ वहां पहुंच गया। करीब हर तरफ से घेर ली गयीं रानी घबरायीं नहीं और उन्होने इस बड़ी सेना से मोरचा लेना जारी रखा। मर्दाना भेष में शत्रुओं के छक्के छुड़ा रही रानी का घोड़ा पखेरवा के पास ही घायल होकर मर गया। सैन्य व्यूहरचना को करीब से जाननेवाली रानी को जब यह आभास हो गया िक अब पराजय तय है तो वह पखेरवा किले पर पहुंच गयीं। अपने समर्थको और बागी सैनिको को उन्होने संबोधित करते हुए कहा िक -मैं समझ गयी हूं , अब इस राज्य के आखिरी दिन आ गए हैं। अंग्रेज हमें जीवित या मृत पकडऩा चाहते हैं...ऐसी नौबत अगर आ गयी तो मैं स्वयं अपनी कटार से अपनी जीवनलीला समाप्त कर दूंगी,पर आप लोग मेरी लाश को अंग्रेजों के हाथ नहीं पडऩे देना और जंग जारी रखना।यह दिन था 2 मार्च 1858 । रानी ने खुद अपनी कटार से अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी। उनको दिए गए वचन के मुताबिक ग्रामीणों ने उनके शव को अमोढा राज्य की कुलदेवी समय भवानी का चौरा के पास दफना दिया और उसके ऊपर मिट्टी के एक टीला बना दिया। यह टीला 1980 तक रानी चौरा के नाम से ही मशहूर रहा और स्थानीय लोग इसकी देवी की तरह पूजा करते रहे । पर 1980 में एक श्रद्धालु ने समय भवानी का मंदिर बनवाने का बीड़ा उठा लिया और ऐतिहासिक तथ्यों की अज्ञानता के नाते मंदिर विस्तार अभियान में रानी चौरा को भी उसी के साथ विलीन कर दिया। इलाके में ऐतिहासिक स्थलों के संरक्षण में लगे राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित पूर्व शिक्षक तथा समाजसेवी श्री हाकिम सिंह के मुताबिक उन्होने स्वयं दोनो चौरों को कई बार देखा था। दोनो मिट्टी के बने थे और वहां पर हर मंगलवार को मेला लगता है। रानी की शहादत की खबर तो अंग्रेजी खेमे तक पहुंच गयी थी। अंग्रेज अधिकारी बेडफोर्ट ने उनके शव की काफी तलाश की पर वह अंग्रेजों के हाथ नहीं पड़ी। पखेरवा में जहां रानी का घोड़ा मर गया था उसे भी स्थानीय ग्रामीणों ने वहीं दफना दिया। इस जगह पर एक पीपल का पेड़ आज भी मौजूद है। लोगों के लिए ये जगहें किसी बड़े श्रद्दा केन्द्र से कम नहीं हैं।लेकिन यह ऐतिहासिक तथ्य है िक रानी की शहादत के बाद इलाके में और भी अशांति फैल गयी। यहां ग्रामीणों ने खूनी क्रांति का श्रीगणेश किया तथा जगह-जगह अंग्रेजी फौज को चुनौती दी। छावनी के पास रामगढ़ गांव में अंग्रेजों का मुकाबला करने की रणनीति बनाने के लिए 17 अप्रैल 1858 को एक बड़ी बैठक बुलायी गयी थी,जिसमें रामगढ़ के धर्मराज सिंह, बभनगांवा के अवधूत सिंह, गुंडा कुवर के सुग्रीव सिंह, बेलाड़ी के ईश्वरी शुक्ल, घिरौलीबाबू के कुलवंत सिंह, हरिपाल सिंह, बलवीर सिह, रिसाल सिंह, रघुवीर सिंह, सुखवंत सिह,रामदीन सिंह, चनोखा (डुमरियागंज) के जयनारायण सिंह,अटवा के जय सिंह, जौनपुर के सरदार मुहेम सिंह तथा मुशरफ खान, गोंडा के भवन सिंह, करनपुर (पैकोलिया) के रामजियावन सिंह, दौलतपुर के लखपत राय आदि मौजूद थे। बैठक भविष्य में अंग्रेजों के खिलाफ जनक्रांति को कैसे चलाया जाये इसे केन्द्र में रख बुलायी गयी थी।लेकिन इसकी सूचना लेफ्टीनेंट कर्नल हगवेड फोर्ट तक पहुंच गयी और उसने सेना की एक टुकड़ी लेकर यहां धावा बोल दिया । इस हमले में बाकी रणबांकुरे तो बच निकले लेकिन धर्मराज सिंह पकड़ मे आ गए। हगवेड ने उनकी कमर मे कटीला तार बांधकर खुद घोड़े पर बैठ कर उनको घसीटते हुए ले गया। छावनी के उत्तर दिशा की ओर जाते समय उसकी कटार अचानक नीचे गिर गयी । उसने धर्मराज सिंह को ही यह कटार उठाने का हुक्म दिया। लेकिन बागी धर्मराज ने उसी कटार से हगबेड की जीवनलीला समाप्त कर दी। हगवेड की समाधि छावनी में ही बनी हुई है,जिस पर उसकी शहादत का शिलालेख भी अंग्रेजों ने लगाया है। उसी के पास ही धर्मराज सिंह की शहादत का शिलालेख भी शहीद स्मारक समिति बस्ती के संयोजक सत्यदेव ओझा की मदद से लगाया गया है। हगवैड की हत्या के बाद पूरा इलाका अंग्रेजों के आक्रोश की चपेट में आ गया। लेकिन इसी दौरान बेलवा इलाके में कई हिस्सों से बागी पहुंचे और उनके जोरदार मोरचे से कर्नल रोक्राफ्ट इतना भयभीत हो गया िक वह उधर जाने की हिम्मत नहीं कर पाया। अप्रैल 1857 के अंत में वह कप्तानगंज लौट आया,जबकि इस बीच में बागी नाजिम मोहम्मद हसन 4000 सैनिको के साथ अमोढ़ा पहुंचा और वहां पर पहले से ही एकत्र देसी फौजों और स्थानीय बागियों के साथ अपनी ताकत को भी जोड़ दिया। इनके दमन के लिए अब मेजर कोक्स के नेतृत्व में बड़ी सेना वहां भेजी गयी जिसने बागियों को अमोढ़ा छोडऩे को विवश कर दिया। 18 जून 1858 को मोहम्मद हसन पराजित हुआ। पर घाघरा के किनारे आखिरी साँस तक लडऩे के लिए बहुत बड़ी संख्या में बागी डटे हुए थे। उस समय की एक सरकारी रिपोर्ट कहती है-नगर तथा अमोढ़ा को छोड़ कर बाकी शांति है......घाघरा के तटीय इलाके में बड़ी संख्या में बागियों की मौजूदगी है....
रानी अमोढ़ा की अपनी सेना में 800 पठान, एक हजार सूर्यवंशी, 800 विसेन, 300 चौहान तथा क ई अन्य जातियों के लोग थे। इसके अलावा रानी को स्थानीय किसानो और खेतिहर मजदूरों का जोरदार समर्थन भी काफी था क्योंिक अपनी जागीर में वह किसानो का खास ध्यान रखती थीं। रानी अमोढ़ा के सेनापति अवधूत सिंह भी काफी बहादुर थे। उन्होंने रानी की शहादत के बाद हजारों क्रांतिकरिओं को एकत्र कर 6 मार्च 1858 को अमोढ़ा तथा बाद में अन्य स्थानो पर युद्द किया । वह अपने साथियों के साथ बेगम हजरत महल को नेपाल तक सुरक्षित पहुंचाने भी गए थे। पर वापस लौटने पर अंग्रेजों के हाथ पड़ गए और छावनी मे पीपल के पेड़ पर उनको फांसी दे दी गयी। उनके वंशजों में राम सिंह ग्राम बभनगांवा में आज भी रहते हैं।बागियों की रामगढ़ की गुप्त बैठक में शामिल सभी लोग जल्दी ही पकड़े गए और इन सबको बिना मुकदमा चलाए फांसी पर लटका दिया गया। जो भी नौजवान अंग्रेजो की पकड़ में आ जाता उसे छावनी में पीपल के पेड़ पर रस्सी बांध कर लटका दिया जाता था। इसी पीपल के पेड़ के पास एक आम के पेड़ पर भी अंग्रेजों ने जाने कितने लोगों को फांसी दी। इस पेड़ की मौजूदगी 1950 तक थी और इसका नाम ही फंसियहवा आम पड़ गया था। पीपल का पेड़ तो खैर अभी भी है पर आखिरी सांस ले रहा है। इस स्थल पर करीब 500 लोगों को फांसी दी गयी। अंग्रेजों ने प्रतिशोध की भावना से गांव के गांव को आग लगवा दी और इसमें गुंडा कुवर तथा महुआ डाबर सर्वाधिक प्रभावित रहे। इन गांवो से काफी संख्या में लोगों का पलायन भी हुआ। ग्राम रिघौरा के विंध्यवासिनी प्रसाद सिंह, सिकदरपुर के गुरूप्रसाद लाल, भुवनेश्वरी प्रसाद तथा लक्ष्मीशंकर के खानदानकी जायदाद बगावत में जब्त हो गयी थी। पर बलिदानी परिवारों की संख्या हजारों में है।1858 से 1972 तक छावनी शहीद स्थल उपेक्षित पड़ा था। 1972 में शिक्षा विभाग के अधिकारी जंग बहादुर सिह ने अध्यापको के प्रयास से एक शिलालेख लगवाया और कई गांव के लोगों से इतिहास संकलन का प्रयास किया । इसी के बाद कई शहीदों के नाम प्रकाश में आए जिनको शिलालेख पर अंकित किया गया। पर इस स्मारक की दशा बहुत खराब है। बस 30 जनवरी को शहीद दिवस पर यहां एक छोटा मेला लग जाता है,दूसरी ओर अमोढ़ा किला तथा राजमहल भी भारी उपेक्षा का शिकार है। इसके खंडहर पर दो शिलालेख लगे हैं, जिसमें एक में राज्य की बलिदानी भूमिका की जानकारी मिलती है। पर इस स्थल के सुन्दरीकरण के लिए न के बराबर कार्य किया गया है। स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार मजहर आजाद ने यहां की उपेक्षा का मामला कई बार उठाया पर शासन ने ध्यान नहीं दिया। अंग्रेजो ने इलाके में दमन राज कायम करने के साथ रानी की सारी संपत्ति छीन ली और इसे बस्ती के राजा शीतला बख्श सिंह की दादी रानी दिगंबरि को इनाम में दे दी गयी।अमोढ़ा के राजपुरोहित परिवार के वंशज पंडित बंशीधर शास्त्री ने काफी खोजबीन कर अमोढ़ा के सूर्यवंशी राजाओ की 27 पीढ़ी का व्यौरा खोजा है जिसके मुताबिक इसकी 24 वी पीढ़ी में जालिम सिंह सबसे प्रतापी राजा थे। उन्होने 1732 -1786 तक राज किया । इसी वंश की छव्वीसवीं पीढ़ी में राजा जंगबहादुर सिंह ने 1852 तक राज किया । अंग्रेजों से कई बार मोरचा लिया। 71 साल की आयु में वह निसंतान दिवंगत हुए। उनका विवाह अंगोरी राज्य (राजाबाजार, ढ़कवा के करीब जौनपुर) के दुर्गवंशी राजा की कन्या तलाश कुवर के साथ हुआ। वहां राजकुमाँरियों को भी राजकुमारों की तरह शस्त्र शिक्षा दी जाती थी। इसी नाते रानी बचपन से ही युद्द क ला में प्रवीण थीं।अमोढ़ा राज के खंडहर आज भी अपनी जगह खड़े हैं और रानी अमोढ़ा की बलिदानी गाथा का बयान करते हैं। वर्ष 915 ई के पहले अमोढ़ा में भरों का राज था, जिसे पराजित कर सूर्यवंशी राजा कंसनारायण सिंह ने शासन किया । उनके पांच पुत्र थे जिसमें सबसे बड़े कुवर सिंह ने अपना किला पखेरवा में स्थापित किया । आज भी यह उनके किले के नाम से ही मशहूर है। अमोढ़ा के किले और राजमहल के नीचे से पखेरवा तक चार किलोमीटर सुरंग होने की बात भी कही जाती है। उनके कु वर कहे जाते हैं तथा अमोढ़ा के इर्द गिर्द के 42 गांव अपने आगे कुवर लगाते है । ये सभी काफी बागी गांव माने जाते रहे हैं। 1858 के बाद इन गांवों पर अंग्रेजों ने भीषण अत्याचार किया गया । विकास की मुख्यधारा से ये गांव आज भी सदियों पीछे हैं।