मंगलवार, 19 अगस्त 2008

1857 और नेपाल की तराई

अरविन्द कुमार सिंह
जिस समय भारत में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को समाप्त घोषित कर अंग्रेज जश्न में डूबे थे और बागी राजाओं, गांवों और जमींदारों की संपत्तियों तथा जमीनो को जब्त कर अपने भक्तों के बीच में बांटने में जुटे हुए थे, उस समय भी नेपाल की तराई से घोर कष्ट और अभावों के बीच कई जानेमाने सेनानी जंग जारी रखे हुए थे। बेहद विपरीत माहौल के बीच भी उनमें जीने और फिर से लडऩे का दम-खम बरकरार था। 1857 की महान क्रांति को जनक्रांति बनानेवाले अवध के करीब सभी प्रमुख विद्रोही नेताओं ने बेगम हजरत महल तथा अपने पुत्र बिरजीस कद्र के संपर्क में रहते हुए नेपाल की तराई में जीवन की आखिरी जंग भी लड़ी थी । नेपाल की तराई से लगे मौजूदा उ.प्र. तथा बिहार का समूचा इलाका इस महान क्रांति में शामिल था। अंग्रेजों को यहां एक - एक इंच जमीन वापस लेने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। भारतीय स्वतंत्रता के लिए अपना घर-परिवार और वैभव सब गंवा देनेवाले सभी प्रमुख सेनानी नेपाल की तराई में ही गुमनाम मौत मरे। उनके साथ गए हजारों लोगों का क्या हुआ,इस पर आज तक इतिहास में रोशनी नहीं पड़ती। भारतीय और अंग्रेज इतिहासकारों का ध्यान नेपाल की उस तराई की तरफ कभी नहीं गया। इतिहासकारों ने 1857 की महान क्रांति का अध्याय 18 अप्रैल 1859 को महान सेनानी तात्या टोपे ( 1814-1859) की फांसी के साथ ही समाप्त कर दिया। 1857 सिपाही विद्रोह था या जनक्रांति इसे लेकर अंग्रेज या और भारतीय इतिहासकारों में भले ही अलग -अलग मत रहे हों पर दोनो इतिहासकार इस पर एक मत हैं िक प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का सूर्यास्त तात्य टोपे की फांसी के साथ हो गया था। पर राष्ट्रीय अभिलेखागार में उपलब्ध दस्तावेज तथा नेपाल की तराई से लगे जिलों के म्युटिनी बस्ते और अन्य तथ्य बताते हैं िक तराई में जहां एक ओर कई जानेमाने क्रांति नायक ·अंग्रजों से मुकाबला करते पहुंचे थे,वहीं बहराइच, गोंडा,बस्ती और गोरखपुर की सीमा से हजारों की संख्या में किसान और मजदूर भी सिपाहियों के साथ पलायन कर गए। इतिहास गवाह है िक ये इलाके हर जगह आंदोलन का चिराग बुझ जाने के बाद भी अंग्रेजों से मोरचा ले रहे थे। अंग्रेजों की तमाम घेराबंदी को तोड़ कर और हजारों लोगों ने शहादत देकर क्रांति के अग्रणी नेताओं तथा उनके परिजनो को सुरक्षित नेपाल की सीमा तक पहुंचाया। बहुत से सेनानी और नायक भारतीय सीमा में अंग्रेजों से मुकाबला करते शहीद हो गए थे। पर भारत -नेपाल के नागरिको में उस कठिन दौर में भी आपसी रिश्तों की जो मजबूती कायम रही,उसे इतिहास के पन्नों में याद भी नहीं किया जाता है।
नेपाल और भारत के तराई के लोगों के बीच सदियों से गहरे संबंध रहे हैं। इन इलाको में बहुत सी समानताएं हैं। बोली -बानी से लेकर सामाजिक ताना -बाना एक जैसा ही है। इसी नाते यहां के तमाम जननेताओं और बागी सैनिको को नेपाल की राजसत्ता के भारी विरोध के बाद भी नेपाल की तराई के लोंगों ने गले लगाया और अपनी गरीबी तथा तंगहाली के बाद भी उनकी यथासंभव मदद की । यह बात किसी से छिपी नहीं है िक भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान नेपाल के प्रधानमंत्री राणा जंग बहादुर ने खुल कर अंग्रेजों का साथ दिया था। अगर उस समय अवध में नेपाली और पटियाला की फौजें न पहुंची होती तो शायद आजादी का चिराग लंबे समय तक जलता ही रहता। पर उन्होने अंग्रेजों का साथ दिया और अवध की ऐतिहासिक लूट में भी भागीदार बने,शायद इसी नाते नेपाली राजसत्ता के प्रति अवध के लोगों में पीढिय़ों की नाराजगी भरी है। पर अगर नेपाल की तराई के लोगों ने 1857 के महान नेताओं की मदद न की होती तो बेगम हजरत महल से लेकर नाना साहब और राणा बेनीमाधव से लेकर राजा देवीबख्श सिंह सभी प्रमुख नेता नेपाल की सीमा में दाखिल होते ही अंग्रेजों की पकड़ में आ गए होते। इन नेताओं पर अंग्रेजों ने भारी भरकम पुरस्कार भी घोषित कर रखे थे। इन तथ्यों के साथ सवाल यह उठता है िक क्या नेपाल की तराई के 21 जिलों में रह रहे मधेशिया लोगों के साथ 1857 की क्रांति के दौरान कोई संबंध रहा था? मधेश क्षेत्र में जो लोग रह रहे हैं, उनमें से तमाम परिवारों के पुरखों के तार निश्चय ही 1857 से जुड़े थे। उनकी मदद से ही बहुत से क्रांतिकारी नेपाल में स्थायी रूप से बस सके और बहुतों के परिवार तराई में मुख्यधारा में शामिल हो सके । भारतीय मूल के मधेशिया आज भी नेपाल की मुख्यधारा में शामिल होने के लिए जंग कर रहे हैं। मालाबार के विपरीत मौसम की तरह उनके भी परिवारों के हजारों लोगों ने शहादत दी। नेपाल की कुल 2.30 करोड़ आबादी में से मधेशियों की संख्या 1 करोड़ से भी अधिक मानी जाती है। विभिन्न इलाको में इनके पचास से अधिक संगठन कार्यरत हैं। पड़ोसी यूपी तथा बिहार के नागरिको को उन्होने 1857 से १९४७ के बीच लगातार संघर्षों में मदद की । नेपाल में आज भी 40-45 लाख मधेशिया लोग नागरिकता से वंचित हैं। लोकतंत्र के नए झोंके में भी मधेशिया लोग बहुत सहज नहीं हो सके क्योंिक अरसे से वे माओवादियों के निशाने पर भी रहे हैं। नेपाल की आबादी में करीब 51 फीसदी होकर भी वे यूपीवाले या बिहारी नाम से पुकारे जाते हैं। हिंदी के साथ नेपाल की तराई में मैथिली, भोजपुरी, अवधी तथा थारू बोली जाती है। मधेशी इलाका नेपाल के कुल क्षेत्रफल का 21 फीसदी है। यही इलाका नेपाल का अन्न भंडार भी है। अवध की क्रांति को वे अंग्रेजी इतिहासकार भी जनक्रांति मानते हैं, जो 1857 को साफगोई से सिपाही विद्रोह बताते हैं। अन्य जगहों की तुलना में अवध में क्रांति की तैयारी और सभी जगहों से अच्छी थी। अंग्रेजों के तमाम प्रयासों के बाद भी 18 माह तक अवध में स्वतंत्रता का दीप जगमगाता रहा और तराई से भी सरकार चलती रही। अवध को भारी भरकम फौजों और नेपाल से लेकर पटियाला तक की सेनाओं की मदद से दोबारा जीता जा सका। भारतीय सीमा में बेगम हजरत महल का आखिरी मुकाम बहराइच का बौंडी का ऐतिहासिक किला था ।मार्च 1858 में लखनऊ में आखिरी जंग के पहले की सभी लड़ाइयों में क्रांतिकारी ही जीते थे। 18 मार्च को बेगम तथा 21 मार्च को मौलवी अहमद उल्लाह शाह की पराजय के बाद भी बागियों ,जिसमें ज्यादातर किसान और श्रमिक थे, ने खून के आखिरी कतरे तक अंग्रेजों से संघर्ष किया । लखनऊ छोडऩे के बाद बेगम अपने करीबी साथियों के साथ तराई के ही जिले शाहजहांपुर गयीं और उसके बाद बहराइच के बौडी के किले को और मजबूती दिला कर युद्द जारी रखा। जब चारो तरफ से अंग्रेजों ने जोरदार घेराबंदी कर दी तो जुलाई 1858 में उन्होने अपने साथियों से सलाह मशविरा कर बौंडी किला छोड़ कर नेपाल की तराई में जाना उचित समझा। बौंडी (बहराइच) का किला घाघरा तट पर था जिसे अंग्रेजों ने उड़ा दिया था। वहां पर बेगम के साथ कई तोपें 15,000 की सेना,500 बागी सिपाही तथा 16 हजार समर्थक मौजूद थे। बौंडी किले से ही बिरजीस कद्र ने 9 मई 1858 नेपाल में राणा जंगबहादुर को पत्र लिख कर दोस्ती का हवाला दिया और मदद मांगी। पत्र में उन्होने अंग्रेजों की मंशा पर सवाल खड़ा करने के साथ हिंदुओं और मुसलमानो को भ्रष्ट करने के लिए गाय और सुअर की चर्बी का उपयोग करने जैसी बातें लिखने के साथ उनसे पूछा िक आप तो हमारे दोस्त थे पर अंग्रेजों की मदद के लिए अवध में आपकी सेनाएं कैसे आ गयीं? नेपाल की सेनाओं ने मंदिर,मस्जिद और इमामबाड़ा क्यों तबाह कर दिया? पत्र में बिरजीस कद्र ने उनसे अंग्रेजों को समाप्त करने में मददगार बनने की अपील की थी। पर इस पत्र का जबाव बिरजीस कद्र का दूत 17 जुलाई 1858 को उनके पास लेकर पहुंचा जिसमें लिखा था िक राणा इस लड़ाई में अंग्रेजो का साथ देंगे। शायद बेगम नेपाल को भरोसा था िक पुराने संबंधों के आधार पर नेपाल बागियों को मदद देगा। लेकिन यह दिवास्वप्न था। नेपाल के इंकार के बाद बागियों की क्या मनोदशा रही होगी, इसकी सहज परिकल्पक ना की जा सकती है।जनवरी 1859 में विशेष आयुक्त मेजर बैरो ने मुख्य आयुक्त लखनऊ को पत्र लिख कर बेगम हजरत महल तथा उनकी सेना की नेपाल में अवस्थिति का नक्शा भेज कर यह भी अवगत कराया था िक उनके पास 7 तोपें हैं और वे दोबारा अवध में समस्या खडी कर सकती हैं। लेकिन उनकी सेना में वास्तव में कितने लड़ाके हैं इसका अंदाज अंग्रेजी खुफिया तंत्र नहीं लगा सका था। अंग्रेजी खुफिया दस्तावेजों के मुताबिक 28 मार्च 1859 को बेगम हजरतमहल,बिरजीस कद्र तथा नाना साहब बुटवल में थे। इसी के बाद 7 अप्रैल 1859 को इन सबके साथ रूहेलखंड के महान बागी नेता खान बहादुर खान भी आ मिले और ये सभी नेपाल के नियाकोट किले में एक साथ रहे। आपस में बागी नेताओं के मेल जोल और एक दूसरे का पता-ठिकाना होना यह तो साबित करता है िक इनमें आपस में कितने मजबूत संपर्क बने हुए थे। अन्यथा सभी चोटी के नेताओं पर पुरस्कार था और अंग्रेज अफसर इनकी में दिन रात एक किए हुए थे। नवंबर 1859 तक बेगम नेपाल की तराई से जंग जारी रखे थीं। उनको के अपने पाले में खींचने के लिए अंग्रजो ने हर संभव कोशिश की थी और आखिर में एक लाख रूपए महीने की पेंशन तथा लखनऊ में रहने के लिए महल देने का प्रस्ताव भी रखा गया था । लेकिन लेकिन 1859 तक बेगम के करीबी साथी और सहयोगी राणा बेनामाधव,राजा देवीबख्श सिंह,राजा नरपत सिंह तथा राजा गुलाब सिंह अपने रणबांकुरों के साथ लड़ते रहे। इन्होने माफी मांगने और अपना राज वापस लेने से इंकार कर दिया। अंग्रेजो के पेंशन तथा समर्पण प्रस्ताव को उनके सभी करीबी साथियों ने ठुकरा दिया। आखिरकार तमाम पत्राचारों के बाद बेगम, उनके पुत्र तथा कई औरतों को नेपाल में शरण मिल गयी, पर लालची नेपाल राणा ने इसके बदले में अवध की आखिरी तमाम निशानियों और करोड़ो की दौलत अपने पास रख ली। यह बात अवध के तराई इलाको में आज भी बुजुर्गो के जुबान से सुनी जाती है।

4 टिप्‍पणियां:

Sulabh Jaiswal "सुलभ" ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Sulabh Jaiswal "सुलभ" ने कहा…

बहुत महत्वपूर्ण आलेख है.

कृपया ये भी देखें और प्रकाश डालें.
http://araria.wordpress.com/2009/08/14/%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%8F-%E0%A4%86%E0%A5%9B%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0/

Abhishek singh ने कहा…

मुझे बहुत दिन से जिज्ञासा थी लियाकत अली के बारे में जानने की आज उनके बारे में पढकर बहुत अच्छा लगा

Rizzz zzzzahr ने कहा…

Sir aapke pass koi content ya archieve ho toh send kre about tappa ujjyar Semriyawan region (sant kabir nagar) during 1857 war and situations at that time